Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 143
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक स्थान-१० सूत्र-८८८ लोक स्थिति दस प्रकार की है, यथा-जीव मरकर बार-बार लोक में ही उत्पन्न होते हैं । जीव सदा पापकर्म करते हैं । जीव सदा मोहनीय कर्म का बन्ध करते हैं। तीन काल में जीव अजीव नहीं होते हैं और अजीव जीव नहीं होते हैं । तीन काल में त्रसप्राणी और स्थावर प्राणी विच्छिन्न नहीं होते हैं । तीन काल में लोक अलोक नहीं होता है और अलोक लोक नहीं होता है। तीन काल में लोक अलोक में प्रविष्ट नहीं होता है और अलोक लोक में प्रविष्ट नहीं होता है । जहाँ तक लोक है वहाँ तक जीव है और जहाँ तक जीव है वहाँ तक लोक है । जहाँ तक जीवों और पुद्गलों की गति है वहाँ तक लोक है, जहाँ तक लोक है वहाँ तक जीवों और पुद्गलों की गति है । लोकान्त में सर्वत्र रूक्ष पुद् गल हैं अतः जीव और पुद्गल लोकान्त के बाहर गमन नहीं कर सकते हैं। सूत्र-८८९,८९० शब्द दस प्रकार के हैं, यथा- नीहारी-घन्टा के समान घोष वाला शब्द । डिंडिम-ढोल के समान घोष रहित शब्द । रूक्ष-काक के समान रूक्ष शब्द । भिन्न-कुष्टादिरोग से पीड़ित रोगी के समान शब्द । जर्जरित-वीणा के समान शब्द । दीर्घ-दीर्घ अक्षर के उच्चारण से होने वाला शब्द । ह्रस्व-ह्रस्व अक्षर के उच्चारण से होने वाला शब्द । पृथक्त्वअनेक प्रकार के वाद्यों का एक समवेत स्वर । काकणी-कोयल के समान सूक्ष्म कण्ठ से नीकलने वाला शब्द । किंकिणी-छोटी-छोटी घंटियों से नीकलने वाला शब्द । सूत्र-८९१ इन्द्रियों के दश विषय अतीत काल के हैं, यथा-अतीत में एक व्यक्ति ने एक देश से शब्द सूना । अतीत में एक व्यक्ति ने सर्व देश से शब्द सूना । इसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श के दो-दो भेद हैं। इन्द्रियों के दश विषय वर्तमान काल के हैं, यथा-वर्तमान में एक व्यक्ति एक देश से शब्द सुनता है। वर्तमान में एक व्यक्ति सर्व देश से शब्द सुनता है । इसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श के दो-दो भेद हैं। इन्द्रियों के दश विषय भविष्यकाल के हैं, यथा-भविष्य में एक व्यक्ति एक देश से सूनेगा । भविष्य में एक व्यक्ति सर्व देश से सूनेगा । इसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श के दो-दो भेद हैं। सूत्र-८९२ शरीर अथवा स्कंध से पृथक् न हुए पुद्गल दश प्रकार से चलित होते हैं, यथा-आहार करते हुए पुद्गल चलित होते हैं । रस रूप में परिणत होते हुए पुद्गल चलित होते हैं । उच्छ्वास लेते समय वायु के पुद्गल चलित होते हैं । निःश्वास लेते समय वायु के पुद्गल चलित होते हैं । वेदना भोगते समय पुद्गल चलित होते हैं । निर्जरित पुद्गल चलित होते हैं । वैक्रियशरीर रूपमें परिणत पुद्गल चलित होते हैं । मैथुनसेवन के समय शुक्र पुद्गल चलित होते हैं यक्षाविष्ट पुरुष के शरीर के पुद्गल चलित होते हैं । शरीर के वायु से प्रेरित पुद्गल चलित होते हैं। सूत्र-८९३ दश प्रकार से क्रोध की उत्पत्ति होती है, यथा-मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का इसने अपहरण किया था ऐसा चिन्तन करने से, इसने मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध दिया था ऐसा चिन्तन करने से, मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का यह अपहरण करता है ऐसा चिन्तन करने से, इससे मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध दिया जाता है ऐसा चिन्तन करने से, मेरे मनोज्ञ शब्द स्पर्श, रस, रूप और गंध का यह अपहरण करेगा ऐसा चिन्तन करने से, यह मुझे अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, और गंध देगा-ऐसा चिन्तन करने से, मेरे मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का इसने अपहरण किया था, करता है या करेगा-ऐसा चिन्तन करने से, इसने मुझे अमनोज्ञ शब्द-यावत् गंध दिया था, देता है या देगा-ऐसा चिन्तन करने से, इसने मेरे मनोज्ञ शब्द यावत्-गंध का अपहरण किया, करता है या करेगा तथा इसने मुझे अमनोज्ञ शब्द यावत्-गंध दिया, देता है या देगा ऐसा चिन्तन करने से, मैं आचार्य या उपाध्याय की आज्ञानुसार आचरण करता हूँ किन्तु वे मेरे पर प्रसन्न नहीं रहते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 143

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