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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक कन्दभोजन, फलभोजन, बीजभोजन, हरितभोजन लेने का निषेध किया है उसी प्रकार महापद्म अर्हन्त भी श्रमण निर्ग्रन्थों को आधा कर्म यावत्-हरित भोजन लेने का निषेध करेंगे।
हे आर्यो ! जिस प्रकार मैंने श्रमण निर्ग्रन्थों का प्रतिक्रमण सहित पंच महाव्रत अचेलक धर्म कहा है इसी प्रकार महापद्म अर्हन्त भी श्रमण निर्ग्रन्थों का प्रतिक्रमण सहित यावत् अचेलक धर्म कहेंगे।
हे आर्यो ! जिस प्रकार मैंने पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक धर्म कहा है, उसी प्रकार महापद्म अर्हन्त भी पाँच अणुव्रत यावत् श्रावक धर्म कहेंगे।
हे आर्यो ! जिस प्रकार मैंने श्रमण निर्ग्रन्थों को शय्यातर पिंड और राजपिंड लेने का निषेध किया है उसी प्रकार महापद्म अर्हन्त भी श्रमण निर्ग्रन्थों को शय्यातर पिंड और राजपिंड लेने का निषेध करेंगे।
हे आर्यो ! जिस प्रकार मेरे नौ गण और इग्यारह गणधर हैं, उसी प्रकार महापद्म अर्हन्त के भी नौ गण और इग्यारह गणधर होंगे।
हे आर्यो! जिस प्रकार मैं तीस वर्ष गृहस्थ पर्याय में रहकर मुण्डित यावत् प्रवजित हुआ, बारह वर्ष और तेरह पक्ष न्यून तीस वर्ष का केवली पर्याय, बयालीस वर्ष का श्रमण पर्याय और बहत्तर वर्ष का पूर्णायु भोगकर सिद्ध होऊंग यावत् सब दुःखों का अन्त करूँगा इसी प्रकार महापद्म अर्हन्त भी तीस वर्ष गृहस्थावास में रहकर यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे। सूत्र-८७६
जोशील समाचार (कार्यकलाप) अर्हन् तीर्थंकर महावीर का था वह शील समाचार महापद्म अर्हन्त का होगा सूत्र-८७७
नौ नक्षत्र चन्द्र के पीछे से गति करते हैं, यथासूत्र-८७८
अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती, अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, चित्रा। सूत्र- ८७९
आणत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प में विमान नौ सौ योजन ऊंचे हैं। सूत्र-८८०
विमलवाहन कुलकर नौ धनुष के ऊंचे थे। सूत्र-८८१
कौशलिक भगवान ऋषभदेव न इस अवसर्पिणी में नौ क्रोडाक्रोड़ सागरोपम काल बीतने पर तीर्थ प्रवाया। सूत्र-८८२
धनदन्त, लष्टदन्त, गूढ़दन्त और शुद्धदन्त इन अन्तर्वीपवासी मनुष्यों के द्वीप नौ-सौ नौ-सौ योजन के लम्बे और चौड़े कहे गए हैं। सूत्र - ८८३
शुक्र महाग्रह की नौ विथियाँ हैं, यथा-हयवीथी, गजवीथी, नागवीथी, वृषभवीथी, गोवीथी, उरगवीथी, अजवीथी, मित्रवीथी, वैश्वानरवीथी। सूत्र-८८४
नौ कषाय वेदनीय कर्म नौ प्रकार का है, यथा-स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक और दुगुंछा। सूत्र-८८५
चतुरिन्द्रिय जीवों की नौ लाख कुल कोड़ी हैं। भुजपरिसर्प स्थलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों की नौ लाख कुल कोड़ी हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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