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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक अपमान करते हैं और कहते हैं कि बस अब अधिक कुछ न कहो । जो कुछ कहा यही बहुत है । आयु पूर्ण होने पर वह देव वहाँ से च्यवकर मनुष्यलोकमें हलके कुलोंमें उत्पन्न होता है । यथा-अन्त कुल, प्रांत कुल, तुच्छ कुल, दरिद्र कुल, भिक्षुक कुल, कृपण कुल आदि । इन कुलोंमें भी वह कुरूप, कुवर्ण, कुगन्ध, कुरस, कुस्पर्शवाला होता है । अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर, अमनामस्वर और अनादेय वचन वाला वह होता है। उसके आसपास के लोग भी उसका आदर नहीं करते हैं । वह कुछ किसी को उपालम्भ देने लगता है तो उसे चार पाँच जने मिल कर रोकते हैं और कहने लगते हैं कि बस अब कुछ न कहो।
किन्तु मायावी माया करने पर यदि आलोचना करके मरे तो वह ऋद्धिमान तथा उत्कृष्ट स्थिति वाला देव होता है, हार से उसका वक्षःस्थल सुशोभित होता है, हाथ में कंकण तथा मस्तक पर मुकुट आदि अनेक प्रकार के आभूषणों से वह सुन्दर शरीर से दैदीप्यमान होता है, वह दिव्य भोगोपभोगों को भोगता है । वह कुछ कहने लगता है तो उसे चार पाँच देव आकर उत्साहित करते हैं और कहने लगते हैं कि आप खूब बोले । वह देव देवलोक से च्यवकर मनुष्य लोक में उच्च कुलों में उत्पन्न होता है तो उसे सुन्दर शरीर प्राप्त होता है, आस-पास के लोग उसका बहुत आदर करते हैं तथा बोलने के लिए आग्रह करते हैं। सूत्र-७०३
संवर आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय संवर यावत् स्पर्शन्द्रिय संवर, मन संवर, वचन संवर, काय संवर । असंवर आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय असंवर यावत् काय असंवर । सूत्र - ७०४
___ स्पर्श आठ प्रकार का कहा गया है, यथा-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष । सूत्र- ७०५
लोक स्थिति आठ प्रकार की कही गई है, यथा-आकाश के आधार पर रहा हुआ वायु, वायु के आधार पर रहा हुआ घनोदधि-शेष छठे स्थान के समान-यावत् संसारी जीव कर्म के आधार पर रहे हुए हैं। पुद्गलादि अजीव जीवों से संग्रहीत (बद्ध) हैं। जीव ज्ञानावरणीयादि कर्मों से संग्रहीत (बद्ध) हैं। सूत्र-७०६
गणी (आचार्य) की आठ सम्पदा (भावसमृद्धि) कही गयी है, यथा-आचार सम्पदा-क्रियारूप सम्पदा, श्रुत सम्पदा-शास्त्र ज्ञान रूप सम्पदा, शरीर सम्पदा-प्रमाणोपेत शरीर तथा अवयव, वचन सम्पदा-आदेय और मधुर वचन, वाचना सम्पदा-शिष्यों की योग्यतानुसार आगमों की वाचना देना । मति सम्पदा-अवग्रहादि बुद्धिरूप, प्रयोग सम्पदावाद विषयक स्वसामर्थ्य का ज्ञान तथा द्रव्य-क्षेत्र आदि का ज्ञान और संग्रह परिज्ञा सम्पदा-बाल-वृद्ध तथा रूप आदि के क्षेत्रादि का ज्ञान। सूत्र-७०७
चक्रवर्ती की प्रत्येक महानिधि आठ चक्र के ऊपर प्रतिष्ठित है और प्रत्येक आठ-आठ योजन ऊंचे हैं। सूत्र-७०८
समितियाँ आठ कही गई हैं, यथा-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति, उच्चार प्रस्रवण श्लेष्म मल सिंधाण परिष्ठापनिका समिति, मन समिति, वचन समिति, काय समिति । सूत्र-७०९
आठ गुण सम्पन्न अणगार आलोचना सूनने योग्य होता है, यथा-आचारवान, अवधारणावान, व्यवहारवान, आलोचक या संकोच मिटाने में समर्थ, शुद्धि करवाने में समर्थ, आलोचक की शक्ति के अनुसार प्रायश्चित्त देने वाला, आलोचक के दोष अन्य को न कहने वाला और दोष सेवन से अनिष्ट होता है, यह समझाने में समर्थ ।
आठ गुणयुक्त अणगार अपने दोषों की आलोचना कर सकता है, यथा-जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, क्षान्त और दान्त ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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