Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 113
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक स्थान-७ सूत्र- ५९२ गण छोड़ने के सात कारण हैं, यथा मैं सब धर्मों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र की साधनाओं) को प्राप्त करना (साधना) चाहता हूँ और उन धर्मों (साधनाओं) को मैं अन्य गणमें जाकर ही प्राप्त कर (साध) सकूँगा । अतः मैं गण छोड़कर अन्य गणमें जाना चाहता हूँ ____ मुझे अमुक धर्म (साधना) प्रिय है और अमुक धर्म (साधना) प्रिय नहीं है । अतः मैं गण छोड़कर अन्य गण में जाना चाहता हूँ। सभी धर्मों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र) में मुझे सन्देह है, अतः संशय निवारणार्थ मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ कुछ धर्मों (साधनाओं) में मुझे संशय है और कुछ धर्मों (साधनाओं) में संशय नहीं है । अतः मैं संशय निवारणार्थ अन्य गण में जाना चाहता हूँ। सभी धर्मों (ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्बन्धी) की विशिष्ट धारणाओं को मैं देना (सिखाना) चाहता हूँ। इस गण में ऐसा कोई योग्य पात्र नहीं है अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ। कुछ धर्मों (पूर्वोक्त धारणाओं) को देना चाहता हूँ और कुछ धर्मों (पूर्वोक्त धारणाओं) को नहीं देना चाहता हूँ अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ। एकल विहार की प्रतिमा धारण करके विचरना चाहता हूँ। सूत्र- ५९३ विभंग ज्ञान सात प्रकार का है, एक दिशा में लोकाभिगम । पाँच दिशा में लोकाभिगम । क्रियावरण जीव । मुदग्रजीव । अमुदग्रजीव । रूपीजीव । सभी कुछ जीव हैं। प्रथम विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को एक दिशा का लोकाभिगम ज्ञान उत्पन्न होता है । अतः वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण या उत्तर दिशा में से किसी एक दिशा में अथवा ऊपर देवलोक पर्यन्त लोक देखता है तो-जिस दिशा में उसने लोक देखा है उसी दिशा में लोक है अन्य दिशा में नहीं है-ऐसी प्रतिती उसे होती है और वह मानने लगता है कि मुझे ही विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह दूसरों को ऐसा कहता है कि जो लोग पाँच दिशाओं में लोक हैं ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं। द्वीतिय विभंग ज्ञान-किसी श्रमण-ब्राह्मण को पाँच दिशा का लोकाभिगम ज्ञान उत्पन्न होता है। अतः वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशा में तथा ऊपर सौधर्म देवलोक पर्यन्त लोक देखता है तो उस समय उसे यह अनुभव होता है कि लोक पाँच दिशाओं में ही है । तथा यह भी अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है । और वह यों कहने लगता है कि जो लोग एक ही दिशा में लोक है। ऐसा कहते हैं वे मिथ्या हैं। तृतीय विभंग ज्ञान-किसी श्रमण या ब्राह्मण को क्रियावरण जीव नाम का विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह जीवों को हिंसा करते हुए, झूठ बोलते हुए, चोरी करते हुए, मैथुन करते हुए, परिग्रह में आसक्त रहते हुए और रात्रि भोजन करते हुए देखता है किन्तु इन सब कृत्यों से जीवों के पाप कर्मों का बन्ध होता है यह नहीं देख सकता उस समय उसे यह अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है। और वह यों मानने लगता है कि जीव के आवरण (कर्मबन्ध) क्रिया रूप ही हैं । साथ ही यह भी कहने लगता है कि जो श्रमण ब्राह्मण जीव के क्रिया से आवरण (कर्मबन्ध) नहीं होता ऐसा कहते हैं वे मिथ्या हैं। चतुर्थ विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को मुदग्रविभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह बाह्य और आभ्यन्तर पुद् गलों को ग्रहण करके तथा उनके नाना प्रकार के स्पर्श करके नाना प्रकार के शरीरों की विकुर्वणा करते हुए देवताओं को देखता है उस समय उसे यह अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय वाला ज्ञान उत्पन्न हुआ है अतः मैं देख सकता हूँ कि जीव मुदग्र अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके शरीर रचना करने वाला है। जो लोग जीव को अमुदग्र कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं ऐसा वह कहने लगता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 113

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