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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक पंचम विभंग ज्ञान-किसी श्रमण को अमुदग्र विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह आभ्यन्तर और बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही देवताओं को विकुर्वणा करते हुए देखता है। उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है अतः मैं देख सकता हूँ जीव अमुदग्र है और वह यों कहने लगता है कि जो लोग जीव को मुदग्र समझते हैं वे मिथ्यावादी हैं।
छठा विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को जब रूपीजीव नाम का विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह उस ज्ञान से देवताओं को ही बाह्याभ्यन्तर पुद्गल ग्रहण करके या ग्रहण किये बिना विकुर्वणा करके देखता है । उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मुझे अतिशय वाला ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह यों मानने लगता है कि जीव तो रूपी है किन्तु जो लोग जीव को अरूपी कहते हैं उन्हें वह मिथ्यावादी कहने लगता है।
सप्तम विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को जब सर्वे जीवा नाम का विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह वायु से इधर उधर हिलते चलते काँपते और अन्य पुद्गलों के साथ टकराते हुए पुद्गलों को देखता है उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय वाला ज्ञान उत्पन्न हुआ है अतः वह यों मानने लगता है कि लोक में जो कुछ है वह सब जीव ही है किन्तु जो लोग लोक में जीव अजीव दोनों मानते हैं उन्हें वह मिथ्यावादी कहने लगता है। ऐसे विभंग ज्ञानी को पृथ्वी, वायु और तेजस्काय का सम्यग्ज्ञान होता ही नहीं अतः वह उस विषय में मिथ्या भ्रम में पड़ा होता है। सूत्र- ५९४
योनि संग्रह सात प्रकार का है, यथा-अंडज-पक्षी, मछलियाँ, सर्प इत्यादि अंडे से पैदा होने वाले । पोतजहाथी, बागल आदि चमड़े से लिपटे हुए उत्पन्न होने वाले । जरायुज-मनुष्य, गाय आदि जर के साथ उत्पन्न होने वाले । रसज-रस में उत्पन्न होने वाले । संस्वेदज-पसीने से उत्पन्न होने वाले । सम्मूर्छिम-माता-पिता के बिना उत्पन्न होने वाले जीव-कृमि आदि । उद्भिज-पृथ्वी का भेदन कर उत्पन्न होने वाले जीव खंजनक आदि।
अंडज की गति और आगति सात प्रकार की होती है। पोतज की गति और आगति सात प्रकार की होती है। इसी प्रकार उद्भिज पर्यन्त सातों की गति और आगति जाननी चाहिए। अंडज यदि अंडजों में आकर उत्पन्न होता है तो अंडजों पोतजों यावत् उद्भिजों से आकर उत्पन्न होता है । इसी प्रकार अंडज अंडजपन को छोड़कर अंडज पोतज यावत् उद्भिज जीवन को प्राप्त होता है। सूत्र- ५९५
आचार्य और उपाध्याय सात प्रकार के गण का संग्रह करते हैं । यथा-आचार्य और उपाध्याय गण में रहने वाले साधुओं को सम्यक् प्रकार से आज्ञा (विधि अर्थात् कर्तव्य के लिए आदेश) या धारणा (अकृत्य का निषेध) करे। आगे पांचवे स्थान में कहे अनुसार (यावत् आचार्य और उपाध्याय गच्छ को पूछकर प्रवृत्ति करे किन्तु गच्छ को पूछे बिना प्रवृत्ति न करे) कहें। आचार्य और उपाध्याय गण में प्राप्त उपकरणों की सम्यक् प्रकार से रक्षा एवं सुरक्षा करे किन्तु जैसे तैसे न रखें।
आचार्य और उपाध्याय सात प्रकार से गण का असंग्रह करते हैं । यथा-आचार्य या उपाध्याय गण में रहने वाले साधुओं को आज्ञा या धारणा सम्यक् प्रकार से न करे । इसी प्रकार यावत् प्राप्त उपकरणों की सम्यक् प्रकार से रक्षा न करे। सूत्र-५९६
पिण्डैषणा सात प्रकार की कही गई है, यथा-असंसृष्टा-देने योग्य आहार से हाथ या पात्र लिप्त न हो ऐसी भिक्षा लेना । संसृष्टा-देने योग्य आहार से हाथ या पात्र लिप्त हो ऐसी भिक्षा लेना । उद्धता-गृहस्थ अपने लिए राँधने के वासण में से आहार बाहर नीकाले व ऐसा आहार ले । अल्पलेपा-जिस आहार से पात्र में लेप न लगे ऐसा आहार (चणा आदि) ले । अवगृहीता-भाजन में परोसा हुआ आहार ले । प्रगृहीता-परोसने के लिए हाथ में लिया हुआ अथवा खाने के लिए लिया हुआ आहार ही ले । उज्झितधर्मा-फेंकने योग्य आहार ही भिक्षा में ले।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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