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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक मणिरत्न और काकिणीरत्न ।
प्रत्येक चक्रवर्ती के सात पंचेन्द्रियरत्न हैं-सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकीरत्न, पुरोहितरत्न, स्त्रीरत्न, अश्वरत्न और हस्तिरत्न। सूत्र - ६५८
दुषमकाल के सात लक्षण हैं, यथा-अकाल में वर्षा होना, वर्षाकाल में वर्षा न होना, असाधु जनों की पूजा होना, साधु जनों की पूजा न होना, गुरु के प्रति लोगों का मिथ्याभाव होना, मानसिक दुःख, वाणी का दुःख।
सुषमकाल के सात लक्षण हैं, यथा-अकाल में वर्षा नहं होती है, वर्षाकाल में वर्षा होती है, असाधु की पूजा नहीं होती है, साधु की पूजा होती है, गुरु के प्रति लोगों का सम्यक् भाव होता है, मानसिक सुख, वाणी का सुख । सूत्र- ६५९
संसारी जीव सात प्रकार के कहे गए हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यंचनी, मनुष्य, मनुष्यनी, देव, देवी। सूत्र-६६०
आयु का भेदन सात प्रकार से होता है, यथासूत्र-६६१
अध्यवसाय (राग, द्वेष और भय) से, निमित्त (दंड, शस्त्र आदि) से, आहार (अत्यधिक आहार) से, वेदना (आँख आदि की तीव्र वेदना) से, पराघात (आकस्मिक आघात) से, स्पर्श (सर्प, बिच्छु आदि के डंक) से, श्वासोच्छ्वास (के रोकने) से। सूत्र- ६६२
सभी जीव सात प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पति-कायिक, त्रसकायिक और अकायिक।
सभी जीव सात प्रकार के हैं, यथा-कृष्णलेश्या वाले, यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेशी। सूत्र-६६३
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सात धनुष के ऊंचे थे । वे सातसौ वर्ष का पूर्वायु होने पर, सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में नैरयिक रूप में उत्पन्न हुए। सूत्र-६६४
मल्लीनाथ अर्हन्त स्वयं सातवे (सात राजाओं के साथ) मुण्डित हुए और गृहस्थावास त्यागकर अणगार प्रव्रज्या से प्रव्रजित हुए । यथा-मल्ली-विदेह राजकन्या, प्रतिबुद्धि-इक्ष्वाकु राजा, चन्द्रच्छाय-अंगदेश का राजा, रुक्मी-कुणाल देश का राजा, शंख-काशी देश का राजा, अदीन शत्रु-कुरु देश का राजा, जितशत्रु-पांचाल देश का राजा। सूत्र - ६६५
दर्शन सात प्रकार का कहा गया है, यथा-सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन, सम्यगमिथ्यादर्शन, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । सूत्र-६६६
छद्मस्थ वीतराग मोहनीय को छोड़कर सात कर्म प्रकृतियाँ का वेदन करते हैं, यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्तरायकर्म । सूत्र - ६६७
छद्मस्थ सात स्थानों को पूर्णरूप से न जानता है और न देखता है, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, शरीर रहित जीव, परमाणु पुद्गल, शब्द और गन्ध । इन्हीं सात स्थानों को सर्वज्ञ पूर्ण रूप से जानता है और देखता है । यथा-धर्मास्तिकाय यावत् गन्ध ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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