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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- ५७५
दिनक्षय वाले छ: पर्व हैं । यथा-तृतीयपर्व-आषाढ़ कृष्णपक्ष । सप्तम पर्व-भाद्रपद कृष्णपक्ष । ग्यारहवाँ पर्वकार्तिक कृष्णपक्ष । पन्द्रहवाँ पर्व-पोष कृष्णपक्ष । उन्नीसवाँ पर्व-फाल्गुन कृष्णपक्ष । तेतीसवाँ पर्व-वैशाख कृष्णपक्ष
दिन वृद्धि वाले छः पर्व हैं, यथा-चतुर्थ पर्व-आषाढ़ शुक्ल पक्ष । आठवाँ पर्व-भाद्रपद शुक्ल पक्ष । बारहवाँ पर्व-कार्तिक शुक्ल पक्ष । सोलहवाँ पर्व-पोष शुक्ल पक्ष । बीसवाँ पर्व-फाल्गुन शुक्ल पक्ष । चौबीसवाँ पर्व-वैशाख शुक्ल पक्ष। सूत्र- ५७६
आभिनिबोधिक ज्ञान के छ: अर्थावग्रह हैं, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह यावत्-नोइन्द्रिय अर्थावग्रह । सूत्र- ५७७
__ अवधिज्ञान छ: प्रकार का है । यथा-आनुगामिक-मनुष्य के साथ जैसे मनुष्य की आँखें चलती हैं उसी प्रकार अवधिज्ञान भी अवधिज्ञानी के साथ चलता है। अनानुगामिक-जो अवधिज्ञान दीपक की तरह अवधिज्ञानी के साथ नहीं चलता । वर्धमान-जो अवधिज्ञान प्रतिसमय बढ़ता रहता है । हीयमान-जो अवधिज्ञान प्रतिसमय क्षीण होता रहता है। प्रतिपाती-जो अवधिज्ञान पूर्ण लोक को देखने के पश्चात् नष्ट हो जाता है । अप्रतिपाती-जो अवधिज्ञान पूर्ण लोक को देखने के पश्चात् अलोक के एक प्रदेश को देखने की शक्ति वाला है। सूत्र- ५७८
निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को ये छः अवचन कहने योग्य नहीं हैं । यथा-अलीक वचन-असत्य वचन । हीलित वचन-इर्ष्या भरे वचन । खिंसित वचन-गुप्त बातें प्रगट करना । पुरुष वचन-कठोर वचन । गृहस्थ वचन-बेटा, भाई आदि करना । उदीर्ण वचन-उपशान्त कलह को पुनः उद्दीप्त करने वाले वचन। सूत्र - ५७९
कल्प (साधु का आचार) के छः प्रस्तार हैं । यथा-छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुमने प्राणातिपात किया है। छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुम मृषावाद बोले हो । छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुमने अमुक वस्तु चुराई है। छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुमने अविरति का सेवन किया है । छोटा साधु बड़े साधु को कहे कि तुम अपुरुष हो । छोटा साधु बड़े साधु को दास वचन कहे । इन छ: वचनों का जानबूझ कर भी बड़ा साधु पूर्ण प्रायश्चित्त न दे तो बड़ा साधु उसी प्रायश्चित्त का भागी होता है। सूत्र - ५८०
कल्प (साधु का आचार) के छः पलिमंथू (संयम के घातक) हैं । यथा-कौत्कुच्य-कुचेष्टा करना संयम का घात करना है । मौखर्य-अनावश्यक बोलना सत्य वचन का घात करना है । चक्षुलोलुप-चंचल चक्षु रहना ईर्या-समिति का घात करना है । तितिनिक-इष्ट वस्तु के अलाभ से दुःखी होना एषणा प्रधान गोचरी का घात करना है । ईच्छालोभिकअति लोभ करना मुक्ति मार्ग का घात करना है। मिथ्या निदान करण-लोभ से निदान करना मोक्ष मार्ग का घात करना है। क्योंकि निदान न करना ही भगवान ने प्रशस्त कहा है। सूत्र - ५८१
कल्प-साध्याचार-की व्यवस्था छः प्रकार की है, यथा-सामायिक कल्पस्थिति-सामायिक सम्बन्धी मर्यादा। छेदोपस्थापनिक कल्पस्थिति-शैक्षकाल पूर्ण होने पर पंच महाव्रत धारण कराने की मर्यादा । निर्विसमान कल्पस्थिति-परिहार विशुद्धि तप स्वीकार करने वाले की मर्यादा । निर्विष्ठ कल्पस्थिति-पारिहारिक तप पूरा करने वाले की मर्यादा । जिन कल्पस्थिति-जिन कल्प की मर्यादा । स्थविर कल्पस्थिति-स्थविर कल्प की मर्यादा। सूत्र-५८२
श्रमण भगवान महावीर चतुर्विध आहार परित्यागपूर्वक छ? भक्त (दो उपवास) करके मुण्डित यावत् प्रव्रजित हुए । श्रमण भगवान महावीर को जब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था उस समय चौविहार छट्ठभक्त था । श्रमण भगवान
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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