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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-५६२
__बाह्य तप छह प्रकार का है, यथा-१. अनशन-आहार त्याग, एक उपवास से लेकर छ: मास पर्यन्त । २. ऊनोदरिका-कवल आदि न्यून ग्रहण करना । ३. भिक्षाचर्या-नाना प्रकार के अभिग्रह धारण करके आहार आदि ग्रहण करना । ४. रस परित्याग-क्षीर आदि मधुर रसों का त्याग करना । ५. काय क्लेश-अनेक प्रकार के उत्कटुक आदि आसन करना । ६. प्रति संलिनता-इन्द्रिय जय, कषाय जय और योगों का जय।
आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है, यथा-१. प्रायश्चित्त-आलोचनादि दस प्रकार का प्रायश्चित्त । २. विनय-जिस तप के द्वारा विशेष रूप से कर्मों का नाश हो । ३. वैयावृत्य-सेवा, सुश्रूषा । ४. स्वाध्याय-विविध प्रकार का अभ्यास करना । ५. ध्यान-एकाग्र होकर चिंतन करना । ६. व्युत्सर्ग-परित्याग । चित्त की चंचलता के कारणों का परित्याग करना। सूत्र-५६३
विवाद छ: प्रकार का है, यथा-१. अवष्वष्क्य-पीछे हटकर प्रारम्भ में कुछ सामान्य तर्क देकर समय बितावे और अनुकूल अवसर पाकर प्रतिवादी पर आक्षेप करे । २. उत्ष्वष्क्य-पीछे हटाकर किसी प्रकार प्रतिवादी से विवाद बंध करावे और अनुकूल अवसर पाकर पुनः विवाद करे। ३. अनुलोम्य-सभ्यों को और सभापति को अनुकूल करके विवाद करे। ४. प्रतिलोम्य-सभ्यों को और सभापति को प्रतिकूल करके विवाद करे । ५. भेदयित्वा -सभ्यों में मतभेद करके विवाद करे । ६. मेलयित्वा-कुछ सभ्यों को अपने पक्ष में मिलाकर विवाद करे। सूत्र - ५६४
क्षुद्र प्राणी छ: प्रकार के हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक। सूत्र-५६५
गोचरी छः प्रकार की है, पेटा-गाँव के चार विभाग करके गोचरी करना । अर्ध पेटा-गाँव के दो विभाग करके गोचरी करना । गोमूत्रिका-घरों की दो पंक्तियों में गौमूत्रिका के समान क्रम बनाकर गोचरी करे । पतंग-वीथिकापतंगिया की उड़ान के समान बिना क्रम के गोचरी करना । शंबुक वृत्ता-शंख के वृत्त की तरह घरों का क्रम बनाकर गोचरी करना । गत्वा प्रत्यागत्वा-प्रथम पंक्ति के घरों में क्रमशः आद्योपान्त गोचरी करके द्वीतिय पंक्ति के घरों में क्रमशः आद्योपान्त गोचरी करना। सूत्र- ५६६
जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रान्त (अत्यन्त धृणित) महा नरका वास हैं, लोल, लोलुप, उद्दग्ध, निर्दग्ध, जरक, प्रजरक ।
चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रान्त (अत्यन्त धृणित) महा नरकावास हैं, यथा-आर, वार, मार, रोर, रोरुक, खडाखड़। सूत्र- ५६७
ब्रह्मलोक कल्प में छह विमान-प्रस्तर हैं, यथा-अरज, विरज, निरज, निर्मल, वित्तिमिर, विशुद्ध। सूत्र-५६८
ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के साथ छह नक्षत्र ३०, ३० मुहूर्त तक सम्पूर्ण क्षेत्र में योग करते हैं । यथा-पूर्वाभाद्रपद, कृत्तिका, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, मूल, पूर्वाषाढ़ा।
ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के साथ छह नक्षत्र १५-१५ मुहूर्त तक आधे क्षेत्र में योग करते हैं, यथा-शतभिषा, भरणी, आद्रा, अश्लेषा, स्वाती, ज्येष्ठा।।
ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र के साथ छह नक्षत्र आगे और पीछे दोनों ओर ४५-४५ मुहूर्त तक योग करते हैं, यथारोहिणी, पुनर्वसु, उत्तरा फाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, उत्तराषाढ़ा ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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