Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 53
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र- २७७ चार प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गए हैं, यथा-ज्ञानप्रायश्चित्त, दर्शनप्रायश्चित्त, चारित्रप्रायश्चित्त, व्यक्तकृत्यप्रायश्चित्त । चार प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गए हैं, यथा-परिसेवना प्रायश्चित्त, संयोजना प्रायश्चित्त, आरोपण प्रायश्चित्त और परिकुंचन प्रायश्चित्त । सूत्र - २७८ चार प्रकार का काल कहा गया है, यथा-प्रमाणकाल,यथायुनिवृत्तिकाल, मरणकाल, अद्धाकाल । सूत्र - २७९ पुद्गलों का चार प्रकार का परिणमन कहा है, यथा-वर्णपरिणाम, गंधपरिणाम, रसपरिणाम, स्पर्श-परिणाम । सूत्र - २८० भरत और ऐरवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर को छोड़कर मध्य के बाईस अर्हन्त भगवान चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा करते हैं, यथा-सब प्रकार की हिंसा से निवृत्त होना, सब प्रकार के झूठ से निवृत्त होना, सब प्रकार के अदत्तादान से निवृत्त होना, सब प्रकार के बाह्य पदार्थों के आदान से निवृत्त होना। सब महाविदेहों में अर्हन्त भगवान चातुर्याम धर्म का प्ररूपण करते हैं, यथा-सब प्रकार के प्राणातिपात से यावत्-सब प्रकार के बाह्य पदार्थों के आदान से निवृत्त होना। सूत्र- २८१ चार प्रकार की दुर्गतियाँ कही गई हैं, यथा-नैरयिकदुर्गति, तिर्यंचयोनिक दुर्गति, मनुष्यदुर्गति, देवदुर्गति । चार प्रकार की सुगतियाँ कही गई हैं, यथा-सिद्ध सुगति, देव सुगति, मनुष्य सुगति, श्रेष्ठ कुल में जन्म। चार दुर्गतिप्राप्त कहे गए हैं, यथा-नैरयिक दुर्गतिप्राप्त, तिर्यंचयोनिक दुर्गतिप्राप्त, मनुष्य दुर्गतिप्राप्त, देव दुर्गतिप्राप्त । चार सुगतिप्राप्त कहे गए हैं, यथा-सिद्ध सुगति प्राप्त यावत्-श्रेष्ठ कुल में जन्म प्राप्त । सूत्र- २८२ प्रथम समय जिन के चार कर्म-प्रकृतियाँ क्षीण होती हैं, यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय । केवल ज्ञान-दर्शन जिन्हें उत्पन्न हुआ है, ऐसे अर्हन्, जिन केवल चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, यथावेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । प्रथम समय सिद्ध के चार कर्मप्रकृतियाँ एक साथ क्षीण होती हैं, यथा-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र । सूत्र - २८३ चार कारणों से हास्य की उत्पत्ति होती है, यथा-देखकर, बोलकर, सूनकर और स्मरण कर । सूत्र- २८४ चार प्रकार के अन्तर कहे गए हैं, यथा-काष्ठान्तर, पक्ष्मान्तर, लोहान्तर, प्रस्तरान्तर । इसी तरह स्त्री-स्त्री में और पुरुष-पुरुष में भी चार प्रकार का अन्तर कहा गया है, काष्ठान्तर के समान, पक्ष्मान्तर के समान, लोहान्तर के समान, प्रस्तरान्तर के समान । सूत्र - २८५ चार प्रकार के कर्मकर कहे गए हैं, यथा-दिवसभृतक, यात्राभृतक, उच्चताभृतक, कब्बाडभृतक । सूत्र- २८६ चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-कितनेक प्रकट रूप से दोष का सेवन करते हैं किन्त गप्त रूप से नहीं कितनेक गुप्त रूप से दोष का सेवन करते हैं किन्तु प्रकट रूप से नहीं, कितनेक प्रकट रूप से भी और गुप्त रूप से भी दोष सेवन करते हैं, कितनेक न तो प्रकट रूप से और न गुप्त रूप में दोष का सेवन करते हैं। सूत्र- २८७ असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के सोम महाराजा (लोकपाल) की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथा मुनि दीपरत्नसागर कृत् (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 53

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