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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-४७४
पाँच कारणों से सोया हुआ मनुष्य जागृत होता है, यथा-शब्द सूनने से, हाथ आदि के स्पर्श से, भूख लगने से, निद्रा क्षय से, स्वप्न दर्शन से। सूत्र - ४७५
पाँच कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थी को पकड़ कर रखे या सहारा दे तो भगवान की आज्ञा का अति-क्रमण नहीं करता है । साध्वी को यदि कोई उन्मत्त पशु या पक्षी मारता हो । दूर्ग या विषम मार्ग में साध्वी प्रस्खलित हो या गिर रही हो । निर्ग्रन्थी कीचड़ में फस गई हो या लिपट गई हो । निर्ग्रन्थी को नाव पर चढ़ाना या उतारना हो। जो निर्ग्रन्थी विक्षिप्त चित्त, क्रुद्ध, यक्षाविष्ट, उन्मत्त, उपसर्ग प्राप्त, कलह से व्याकुल, प्रायश्चित्तयुक्त यावत् भक्त-पान प्रत्याख्यात हो अथवा संयम से च्युत की जा रही हो। सूत्र-४७६
गण में आचार्य और उपाध्याय के पाँच अतिशय । यथा-आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में प्रवेश करके धूल भरे पैरों को दूसरे साधुओं से झटकवावे या साफ करावे तो भगवान की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होता । आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में मल-मूत्र का उत्सर्ग करे या उसकी शुद्धि करे तो भगवान की आज्ञा का उल्लंघन नहीं होता। आचार्य और उपाध्याय ईच्छा हो तो वैयावृत्य करे, ईच्छा न हो तो न करे फिर भी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता। आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय में एक या दो रात अकेले रहे तो भी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता । आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर एक या दो रात अकेले रहे तो भी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं होता। सूत्र-४७७
पाँच कारणों से आचार्य और उपाध्याय गण छोड़कर चले जाते हैं । गण में आचार्य और उपाध्याय की आज्ञा या निषेध का सम्यक् प्रकार से पालन न होता हो । गण में वय और ज्ञान ज्येष्ठ का वन्दनादि व्यवहार सम्यक् प्रकार से पालन करवा न सके तो । गण में श्रुत की वाचना यथोचित रीति से न दे सके तो । स्वगण की या परगण की निर्ग्रन्थी में आसक्त हो जाए तो । मित्र या स्वजन यदि गण छोड़कर चला जाए तो उसे पुनः स्वगण में स्थापित करने के लिए आचार्य या उपाध्याय गण छोड़कर चला जाए तो। सूत्र-४७८ पाँच प्रकार के ऋद्धिमान् मनुष्य हैं, यथा-अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, भावितात्मा अणगार ।
स्थान-५ - उद्देशक-३ सूत्र - ४७९
पाँच अस्तिकाय हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्ति-काय
धर्मास्तिकाय अवर्ण, अगंध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित लोकद्रव्य है । वह पाँच प्रकार का है, यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और गुण से । द्रव्य से-धर्मास्तिकाय एक द्रव्य है, क्षेत्र से लोक प्रमाण है, काल से अतीत में कभी नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं है ऐसा नहीं, भविष्य में कभी नहीं होगा ऐसा भी नहीं । धर्मास्तिकाय अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा । वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव से-अवर्ण, अगंध, अरस और अस्पर्श है । गुण से-गमन सहायक गुण है।
अधर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के समान पाँच प्रकार का है। विशेष यह कि गुण से-स्थिति सहायक गुण है।
आकाशास्तिकाय धर्मास्तिकाय के समान पाँच प्रकार का है । विशेष यह की क्षेत्र से-आकाशास्तिकाय लोकालोक प्रमाण है । गुण से अवगाहन गुण है।
जीवास्तिकाय धर्मास्तिकाय के समान पाँच प्रकार का है। विशेष यह की द्रव्य से-जीवास्तिकाय अनन्त जीव द्रव्य है । गुण से-उपयोग गुण है।
पुद्गलास्तिकाय पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श युक्त है । रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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