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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक स्थान-५
उद्देशक-१ सूत्र-४२३
महाव्रत पाँच कहे गए हैं। यथा-प्राणातिपात से सर्वथा विरत होना । यावत् परिग्रह से सर्वथा विरत होना।
अणुव्रत पाँच कहे गए हैं । यथा-स्थूल प्राणातिपात से विरत होना । स्थूल मृषावाद से विरत होना । स्थूल अदत्तादान से विरत होना । स्व-स्त्री में सन्तुष्ट रहना । ईच्छाओं (परिग्रह) की मर्यादा करना। सूत्र-४२४
वर्ण पाँच कहे गए हैं। यथा-कृष्ण, नील, रक्त, पीत, शक्ल । रस पाँच कहे गए हैं । यथा-तिक्त यावत-मधर । काम गुण पाँच कहे गए हैं । यथा-शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श । इन पाँचों में जीव आसक्त हो जाते हैं । शब्द यावत् स्पर्श में।
इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव राग भाव को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव मूर्छा भाव को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव गृद्धि भाव को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव आकांक्षा भाव को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार पूर्वोक्त पाँचों में जीव मरण को प्राप्त होते हैं।
इन पाँचों का ज्ञान न होना जीवों के अहित के लिए होता है । इन पाँचों का ज्ञान न होना अशुभ होता है। इन पाँचों का ज्ञान न होना अनुचित होता है । इन पाँचों का ज्ञान न होना अकल्याण होता है । इन पाँचों का ज्ञान न होना अनानुगामिता के होता है । यथा-शब्द, यावत् स्पर्श ।
इन पाँचों का ज्ञान होना, त्याग होना जीवों के हित के लिए होता है । इन पाँचों का ज्ञान होना, शुभ के लिए होता है, इन पाँचों का ज्ञान होना उचित होता है, इन पाँचों का ज्ञान होना कल्याण होता है, इन पाँचों का ज्ञान होना अनुगामिकता होता है।
इन पाँच स्थानों का न जानना, न त्यागना जीवों की दुर्गतिगमन के लिए होता है । यथा-शब्द, यावत् स्पर्श ।
इन पाँच स्थानों का ज्ञान और परित्याग जीवों की सुगतिगमन के लिए होता है । यथा-शब्द यावत् स्पर्श । सूत्र-४२५
पाँच कारणों से जीव दुर्गति को प्राप्त होते हैं । यथा-प्राणातिपात से, यावत् परिग्रह से । पाँच कारणों से जीव सुगति को प्राप्त होते हैं । यथा-प्राणातिपात विरमण से, यावत् परिग्रह विरमण से । सूत्र - ४२६
पाँच प्रतिमाएं कही गई हैं । यथा-भद्रा प्रतिमा, सुभद्रा प्रतिमा, महाभद्रा प्रतिमा, सर्वतोभद्र प्रतिमा और भद्रोतर प्रतिमा। सूत्र-४२७
पाँच स्थावरकाय कहे गए हैं । यथा-इन्द्र स्थावरकाय (पृथ्वीकाय), ब्रह्म स्थावरकाय (अप्काय), शिल्प स्थावरकाय (तेजस्काय), संमति स्थावरकाय (वायुकाय), प्राजापत्य स्थावरकाय (वनस्पतिकाय)।
पाँच स्थावर कायों के ये पाँच अधिपति हैं । यथा-पृथ्वीकाय का अधिपति (इन्द्र), अप्काय का अधिपति (ब्रह्म), तेजस्काय का अधिपति (शिल्प), वायुकाय का अधिपति (संमति), वनस्पतिकाय का अधिपति (प्रजापति)।
सूत्र-४२८
अवधि उपयोग की प्रथम प्रवृत्ति के समय अवधि ज्ञान-दर्शन, पाँच कारणों से चलित-क्षुब्ध होता है । यथापृथ्वी को छोटी देखकर, पृथ्वी को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त देखकर, महान अजगर का शरीर देखकर, महान ऋद्धि वाले देव को अत्यन्त सुखी देखकर, ग्राम नगरादि में अज्ञात एवं गड़े हुए स्वामीरहित खजानों को देखकर ।
किन्तु इन पाँच कारणों से केवलज्ञान-केवलदर्शन चलित-क्षुब्ध नहीं होता है । यथा-पृथ्वी को छोटी देखकर यावत् ग्राम नगरादि में गड़े हुए अज्ञात खजानों को देखकर।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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