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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ४२९
नैरयिकों के शरीर पाँच वर्ण वाले और पाँच रस वाले कहे गए हैं । यथा-कृष्ण यावत् शुक्ल । तिक्त यावत् मधुर । इसी प्रकार वैमानिक देव पर्यन्त २४ दण्डक के शरीरों के वर्ण और रस कहने चाहिए।
पाँच शरीर कहे गए हैं । यथा-औदारिकशरीर, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर।
औदारिक शरीर के पाँच वर्ण और पाँच रस कहे गए हैं । यथा-कृष्ण, यावत् शुक्ल । तिक्त यावत् मधुर ।
इसी प्रकार कार्मण शरीर पर्यन्त वर्ण और रस कहने चाहिए । सभी स्थूलदेहधारियों के शरीर पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श युक्त हैं। सूत्र-४३०
___ पाँच कारणों से प्रथम और अन्तिम जिन का उपदेश उनके शिष्यों को उन्हें समझने में कठिनाई होती है। दुराख्येय-आयास साध्य व्याख्या युक्त । दुर्विभजन-विभाग करने में कष्ट होता है । दुर्दर्श-कठिनाई से समझ में आता है । दुःसह-परीषह सहन करने में कठिनाई होती है । दुरनुचर-जिनाज्ञानुसार आचरण करने में कठिनाई होती है।
पाँच कारणों से मध्य के २२ जिन का उपदेश उनके शिष्यों को सुगम होता है । यथा-सुआख्येय-व्याख्या सरलतापूर्वक करते हैं । सुविभाज्य-विभाग करने में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । सुदर्श-सरलतापूर्वक समझ लेते हैं । सुराह-शांतिपूर्वक परीषह सहन करते हैं । सुचर-प्रसन्नतापूर्वक जिनाज्ञानुसार आचरण करते हैं।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच सद्गुण सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा-क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लघुता ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच सद्गुण सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथा-१. सत्य, २. संयम, ३. तप, ४. त्याग, ५. ब्रह्मचर्य ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथाउक्षिप्तचारी- यदि गृहस्थ राँधने के पात्र में से जीमने के पात्र में अपने खाने के लिए आहार ले और उस आहार में से दे तो लेउं । निक्षिप्तचारी- रांधने के पात्र में से नीकाला हुआ आहार यदि गृहस्थ दे तो लेउं । अंतचारी-भोजन करने के पश्चात् बढ़ा हुआ आहार लेने वाला मुनि । प्रान्तचारी-तुच्छ आहार लेने वाला रूक्षचारी-लूखा आहार लेने का अभिग्रह करने वाला मुनि।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह सदा प्रशस्त एवं आचरण योग्य कहे हैं । यथाअज्ञातचारी-अपनी जाति-कुल आदि का परीचय दिये बिना आहार लेना । अन्य ग्लानचारी-दूसरे रोगी के लिए भिक्षा लाने वाला मुनि । मौनचारी-मौनव्रतधारी मुनि । संसृष्टकल्पिक-लेप वाले हाथ से कल्पनीय आहार दे तो लेना । तज्जात संतुष्ट कल्पिक-प्रासुक पदार्थ के लेप वाले हाथ से आहार दे तो लेऊं । ऐसे अभिग्रह वाल मुनि ।
भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण के योग्य कहे हैं । यथाऔपनिधिक-अन्य स्थान से लाया हुआ आहार लेने वाला मुनि । शुद्धैषणिक-निर्दोष आहार की गवेषणा करने वाला मुनि । संख्यादत्तिक-आज इतनी दत्ति ही आहार लेऊंगा । दृष्टलाभिक-देखी हुई वस्तु लेने के संकल्प वाला मुनि । पृष्ठलाभिक-आपको आहार दूँ? ऐसा पूछकर आहार दे तो लेऊं ऐसी प्रतिज्ञा वाला मुनि।।
महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण करने योग्य कहे हैं । यथाआचाम्लिक-आयंबिल करने वाला मुनि । निर्विकृतिक-घी आदि की विकृति को न लेने वाला मुनि । पुरिमार्धक-दिन के पूर्वार्ध तक प्रत्याख्यान करनेवाला मुनि । परिमितपिण्डपातिक-परिमित आहार लेने वाला मुनि । भिन्न पिण्डपातिक-अखण्ड नहीं किन्तु टुकड़े-टुकड़े किया हुआ आहार लेने वाला मुनि ।
महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण योग्य कहे हैं । यथा-अरसाहारी, विरसाहारी, अन्ताहारि, प्रान्ताहारी, रुक्षाहारी। महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पाँच अभिग्रह प्रशस्त एवं सदा आचरण योग्य कहे हैं । यथा-अरसजीवी विरसजीवी, अंतजीवी, प्रान्तजीवी, रुक्षजीवी।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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