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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक संज्वलन क्रोध । यह चारों प्रकार का क्रोध नारक यावत्-वैमानिकों में इसी तरह यावत्-लोभ भी वैमानिक पर्यन्त है। चार प्रकार का क्रोध कहा गया है, यथा-आभोगनिवर्तित, अनाभोगनिवर्तित, उपशान्तक्रोध, अनुपशान्त क्रोध । यह चारों प्रकार का क्रोध नैरयिक यावत्-वैमानिकों में होता है।
इसी तरह यावत्-चार प्रकार का लोभ यावत्-वैमानिक में पाया जाता है। सूत्र - २६४
चार कारणों से जीवों ने आठ कर्म-प्रकृतियों का चयन किया है, यथा-क्रोध से, मान से, माया से और लोभ से इसी प्रकार वैमानिकों तक समझ लेना चाहिए । इसी प्रकार ग्रहण करते हैं यह दण्डक भी जान लेना चाहिए। इसी प्रकार ग्रहण करेंगे यह दण्डक भी समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार चयन के तीन दण्डक हुए।
इसी प्रकार उपचय किया, करते हैं और करेंगे । बन्ध किया, करते हैं और करेंगे । उदीरणा की, करते हैं और करेंगे । वेदन किया, करते हैं और करेंगे । निर्जरा की, करते हैं और करेंगे । यों वैमानिक पर्यन्त चौबीस दण्डक में उपचय यावत्-निर्जरा करेंगे तीन-तीन दण्डक समझ लेने चाहिए। सूत्र- २६५
चार प्रकार की प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा-समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, व्युत्सर्गप्रतिमा । चार प्रकार की प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा-भद्रा, सुभद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा । चार प्रकार की प्रतिमाएं कही गई हैं, यथा-क्षुद्रामोकप्रतिमा, महतीमोकप्रतिमा, यवमध्याप्रतिमा, वज्रमध्याप्रतिमा । सूत्र - २६६
चार अजीव अस्तिकाय कहे हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ।
चार अरूपी अस्तिकाय कहे गए हैं, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय सूत्र- २६७
चार प्रकार के फल कहे गए हैं, यथा-कोई कच्चा होने पर भी थोड़ा मीठा होता हैं, कोई कच्चा होने पर भी अधिक मीठा होता है, कोई पक्का होने पर भी थोड़ा मीठा होता है, कोई पक्का होने पर ही अधिक मीठा होता है। इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-श्रुत और वय से अल्प होते हुए भी थोड़े मीठे फल के समान अल्प उपशमादि गुण वाले होते हैं। सूत्र-२६८
चार प्रकार के सत्य कहे हैं, यथा-काया की सरलतारूप सत्य, भाषा की सरलतारूप सत्य, भावों की सरलतारूप सत्य, अविसंवाद योगरूप सत्य । चार प्रकार का मृषावाद कहा है, काया की वक्रतारूप मृषावाद, भाषा वक्रतारूप मृषावाद, भावों की वक्रतारूप मृषावाद, विसंवाद योगरूप मृषावाद ।
चार प्रकार के प्रणिधान हैं, मन-प्रणिधान, वचन-प्रणिधान, काय-प्रणिधान, उपकरण-प्रणिधान । ये चारों नारक यावत्-वैमानिक पर्यन्त पंचेन्द्रिय दण्डकों में जानना । चार प्रकार के सुप्रणिधान हैं, यथा-मन-सुप्रणिधान यावत् उपकरण-सुप्रणिधान । यह संयत मनुष्यों में ही पाए जाते हैं । चार प्रकार के दुष्प्रणिधान हैं, यथा-मनदुष्प्रणिधान यावत्-उपकरण-दुष्प्रणिधान । यह पंचेन्द्रियों को यावत्-वैमानिकों को होता है। सूत्र- २६९
चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-कोई प्रथम मिलन में वार्तालाप से भद्र लगते हैं, परन्तु सहवास से अभद्र मालूम होते हैं, कोई सहवास से भद्र मालूम होते हैं पर प्रथम मिलन में अभद्र लगते हैं, कोई प्रथम मिलन में भी भद्र होते हैं और सहवास से भी भद्र मालूम होते हैं, कोई प्रथम मिलन में भी भद्र नहीं लगते और सहवास से भी भद्र मालूम नहीं होते।
चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, कोई अपने दोष देखता है, दूसरों के नहीं, कोई दूसरों के दोष देखता है, अपने नहीं । इस प्रकार चौभंगी जाननी चाहिए।
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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