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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक के क्षीण न होने से, वेदना के वेदित न होने से, निर्जरित न होने से ईच्छा करने पर भी मनुष्यलोक में आने में समर्थ नहीं होता है, इसी तरह नरकायुकर्म के क्षीण न होने से यावत्-आने में समर्थ नहीं होता है। सूत्र - २६०
साध्वी को चार साड़ियाँ धारण करने और पहनने के लिए कल्पती है, यथा-एक दो हाथ विस्तार वाली, दो तीन हाथ विस्तार वाली, एक चार हाथ विस्तार वाली। सूत्र - २६१ ___ ध्यान चार प्रकार का है-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान ।
आर्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा-अमनोज्ञ अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना । मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति होने पर वह दूर न हो उसकी चिन्ता करना । बीमारी होने पर उसे दूर करने की चिन्ता करना । सेवित कामभोगों से युक्त होने पर उनके चले न जाने की चिन्ता करना । आर्तध्यान के चार लक्षण हैं, यथा-आक्रन्दन करना, शोक करना, आँसू गिराना, विलाप करना।
रौद्रध्यान चार प्रकार का है-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी, संरक्षणानुबन्धी । रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गए हैं, यथा-हिंसाद दोषों में से किसी एक में अत्यन्त प्रवृत्ति करना, हिंसादि सब दोषों में बहुविध प्रवृत्ति करना, हिंसादि अधर्मकार्य में धर्म-बुद्धि से या अभ्युदय के लिए प्रवृत्ति करना, मरण पर्यन्त हिंसादि कृत्यों के लिए पश्चात्ताप न होना आमरणान्त दोष है।
चार प्रकार का धर्मध्यान स्वरूप, लक्षण, आलम्बन एवं अनुप्रेक्षा रूप चार पदों से चिन्तनीय है आज्ञा-विचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय । धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गए हैं, यथा-आज्ञारुचि, निसर्ग रुचि, सूत्ररुचि, अवगाढरुचि । धर्मध्यान के चार आलम्बन कहे गए हैं, यथा-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा । धर्मध्यान की चार भावनाएं कही गई हैं, यथा-एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, संसारा-नुप्रेक्षा।
शुक्लध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा-पृथक्त्ववितर्क सविचारी, एकत्ववितर्क अविचारी, सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति, समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती । शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गए हैं, यथा-अव्यथ, असम्मोह, विवेक, व्युत्सर्ग । शुक्लध्यान के चार आलम्बन हैं, यथा-क्षमा, निर्ममत्व, मृदुता और सरलता । शुक्लध्यान की चार भावनाएं कही गई हैं यथा-अनन्तवर्तितानुप्रेक्षा, विपरिणामानुप्रेक्षा, अशुभानुप्रेक्षा, अपायानुप्रेक्षा। सूत्र - २६२
देवों की स्थिति चार प्रकार की है, यथा-कोई सामान्य देव है, कोई देवों में स्नातक (प्रधान) है, कोई देव पुरोहित है, कोई स्तुति-पाठक है । चार प्रकार का संवास कहा गया है, यथा-कोई देव देवी के साथ संवास करता है, कोई देव मानुषी नारी या तिर्यंच स्त्री के साथ संवास करता है, कोई मनुष्य या तिर्यंच पुरुष देवी के साथ संवास करता है, कोई मनुष्य या तिर्यंच पुरुष मानुषी या तिर्यंची के साथ संवास करता है। सूत्र - २६३
चार कषाय कहे गए हैं, यथा-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय । ये चारों कषाय नारक यावत्-वैमानिकों में पाए जाते हैं । क्रोध के चार आधार कहे गए हैं, यथा-आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, तदुभय प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित । ये क्रोध के चार आधार नैरयिक यावत्-वैमानिक पर्यन्त सब में पाए जाते हैं।
इसी प्रकार यावत्-लोभ के भी चार आधार हैं। मान, माया और लोभ के चार आधार वैमानिक पर्यन्त सब दण्डकों में पाए जाते हैं।
चार कारणों से क्रोध की उत्पत्ति होती है, यथा-क्षेत्र के निमित्त से, वस्तु के निमित्त से, शरीर के निमित्त से, उपधि के निमित्त से । इस प्रकार नारक यावत्-वैमानिक में जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत्-लोभ की उत्पत्ति भी चार प्रकार से होती है। यह मान, माया और लोभ की उत्पत्ति नारक-जीवों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सब में होती है।
चार प्रकार का क्रोध कहा गया है, यथा-अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यान क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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