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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र - ३, 'स्थान'
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स्थान / उद्देश / सूत्रांक श्रमण का मन सदा ऊंचा नीचा रहता है अतः वह धर्म भ्रष्ट हो जाता है। यह दूसरी सुख शय्या है । यथा- एक व्यक्ति मुण्डित यावत्-प्रव्रजित होकर स्वयं को जो आहार आदि प्राप्त है, उससे सन्तुष्ट नहीं होता है और दूसरे को जो आहार आदि प्राप्त है, उनकी ईच्छा करता है. ऐसे श्रमण का मन सदा ऊंचा नीचा रहता है अतः वह धर्म भ्रष्ट हो जाता है। यह तीसरी दुख शय्या है-एक व्यक्ति मुण्डित यावत्-प्रव्रजित होकर जो दिव्य मानवी कामभोगों का आस्वादन-यावत् -अभिलाषा करता है। उस श्रमण का मन सदा डांवाडोल रहता है अतः वह धर्मभ्रष्ट हो जाता है। यह चौथी दुःख शय्या है एक व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रब्रजित होकर ऐसा सोचता है कि में जब घर पर था तब मालिश, मर्दन, स्नान आदि नियमित करता था और जब से मैं मुण्डित यावत् प्रव्रजित हुआ हूँ तब से मैं मालिश, मर्दन आदि नहीं कर पाता हूँ- इस प्रकार भ्रमण जो मालिश यावत् स्नान आदि की ईच्छा यावत् अभिलाषा करता है उसका मन सदा डांवाडोल रहता है अतः वह धर्म भ्रष्ट हो जाता है ।
सुखशय्या चार प्रकार की है उनमें से यह प्रथम सुख शय्या है । यथा- एक व्यक्ति मुण्डित होकर यावत्प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा नहीं करता है तो वह न दुविधा में पड़ता है और न धर्म विपरीत विचार रखता है । निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखने पर श्रमण का मन डांवाडोल नहीं होता, अतः वह धर्म भ्रष्ट भी नहीं होता। यह दूसरी सुख शय्या है- एक व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर स्वयं को प्राप्त आहार आदि से संतुष्ट रहता है और अन्य को प्राप्त आहार आदि की अभिलाषा नहीं रखता है-ऐसे श्रमण का मन कभी ऊंचा नीचा नहीं होता और न वह धर्म भ्रष्ट होता है यह तीसरी सुख शय्या है एक व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर दिव्य मानवी कामभोगों का आस्वादन यावत् अभिलाषा नहीं करता है उसका मन डांवाडोल नहीं होता है, अतः धर्म भ्रष्ट भी नहीं होता। यह चौथी सुख शय्या है - एक व्यक्ति मुण्डित यावत् प्रव्रजित होकर ऐसा सोचता है कि- अरिहंत भगवंत आरोग्यशाली, बलवान शरीर के धारक, उदार कल्याण विपुल कर्मक्षयकारी तपःकर्म को अंगीकार करते हैं, तो मुझे तो जो वेदना आदि उपस्थित हुई है उसे सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिए । यदि मैं आगत वेदनी कर्मों को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करूँगा तो एकान्त पापकर्म का भागी होऊंगा। यदि सम्यक् प्रकार से सहन करूँगा तो एकान्त कर्म निर्जरा कर सकूँगा। इस प्रकार धर्म में स्थिर रहता है ।
सूत्र - ३४८
चार प्रकार के व्यक्ति आगम वाचना के अयोग्य होते हैं। यथा-अविनयी, दूध आदि पौष्टिक आहारों का अधिक सेवन करने वाला, अनुपशांत अर्थात् अति क्रोधी मायावी ।
चार प्रकार के आगम वाचना के योग्य होते हैं। यथा- विनयी, दूध आदि पौष्टिक आहारों का अधिक सेवन न करने वाला, उपशान्त क्षमाशील, कपट रहित ।
सूत्र - ३४९
पुरुष वर्ग चार प्रकार का है । यथा-एक अपना भरण-पोषण करता है किन्तु दूसरे का भरण-पोषण नहीं करता । एक अपना भरण-पोषण नहीं करता किन्तु दूसरों का भरण-पोषण करता है। एक अपना भी और दूसरे का भी भरण-पोषण करता है। एक अपना भी भरण-पोषण नहीं करता और दूसरे का भी भरण-पोषण नहीं करता है ।
पुरुष वर्ग चार प्रकार का है। यथा- एक पुरुष पहले भी दरिद्री होता है और पीछे भी दरिद्री रहता है । एक पुरुष पहले दरिद्री होता है किन्तु पीछे धनवान हो जाता है। एक पुरुष पहले धनवान होता है किन्तु पीछे दरिद्री हो जाता है। एक पुरुष पहले भी धनवान होता है और पीछे भी धनवान रहता है।
पुरुष वर्ग चार प्रकार का है । यथा- एक पुरुष दरिद्री होता है और दुराचारी भी होता है। एक पुरुष दरिद्री होता है किन्तु सदाचारी होता है। एक पुरुष धनवान होता है किन्तु दुराचारी होता है। एक पुरुष धनवान भी होता है और सदाचारी भी होता है ।
पुरुष वर्ग चार प्रकार का है । यथा- एक दरिद्री है किन्तु दुष्कृत्यों में आनन्द मानने वाला है। एक दरिद्री किन्तु सत्कार्यों में आनन्द मानने वाला है। एक धनी है किन्तु दुष्कृत्यों में आनन्द मानने वाला है। एक धनी भी है और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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