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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-३४५
देवलोक में उत्पन्न होते ही कोई देवता मनुष्य लोक में आना चाहता है किन्तु चार कारणों से वह नहीं आ सकता । यथा-१. देवलोक में उत्पन्न होते ही एक देवता दिव्य कामभोगों में मूर्छित, गृद्ध, बद्ध एवं आसक्त हो जाता है, अतः वह मानव कामभोगों को न प्राप्त करना चाहता है और न उन्हें श्रेष्ठ मानता है। मानव कामभोगों से मुझे कोई लाभ नहीं है-ऐसा निश्चय कर लेता है। मुझे मानव कामभोग मिले ऐसी कामना भी नहीं करता और मानव कामभोगों में मैं कुछ समय लगा रहूँ-ऐसा विकल्प भी मन में नहीं लाता । २. देवलोक में उत्पन्न होते ही एक देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त हो जाता है, अतः उसका मानव प्रेम दैवी प्रेम में परिणत हो जाता है । ३. देवलोक में उत्पन्न होते ही एक देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त हो जाता है, अतः उसके मन में यह विकल्प आता है कि मैं अभी जाऊंगा या एक मुहर्त पश्चात् जाऊंगा ऐसा सोचते-सोचते उसके पूर्व जन्म के प्रेमी कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं । ४. देवलोक में उत्पन्न होते हुए ही एक देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत्आसक्त हो जाता है, अतः उसे मनुष्य लोक की गन्ध भी अच्छी नहीं लगती। क्योंकि मनुष्य लोक की गन्ध चारसो पाँच योजन तक जाती है।
देवलोक से उत्पन्न होते ही देवता मनुष्य लोक में आना चाहता है और इन चार कारणों से आ भी सकता है। १. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त नहीं होता क्योंकि उसके मन में यह विकल्प आता है कि मेरे मनुष्य भव क आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर और गणावच्छेदक है उनकी कृपा से मुझे यह दिव्य देवसृष्टि, दिव्य देवद्युति प्राप्त हुई है, अतः मैं जाऊं और उन्हें वन्दना करूँ यावत् पर्युपासना करूँ । २. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत् आसक्त नहीं होता, क्योंकि मन में यह विकल्प आता है कि इस मनुष्य में जो ज्ञानी या दुष्कर तप करने वाले तपस्वी हैं उन भगवंतों की वन्दना करूँ यावत् पर्युपासना करूँ । ३. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत्-आसक्त नहीं होता क्योंकि उसके मन में यह विकल्प आता है कि-मेरे मनुष्य भव के माता-पिता यावत्-पुत्रवधू है, उनके समीप जाऊं और उन्हें दिखाऊं कि मुझे ऐसी दिव्य देवसृष्टि और दिव्य देवद्युति प्राप्त हुई है । ४. देवलोक में उत्पन्न होते ही देवता दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत् आसक्त नहीं होता क्योंकि उसके मन में यह विकल्प आता है कि मेरे मनुष्यभव के मित्र, सखी, सुहृत, सखा या संगी हैं उनके और मेरे साथ यह वादा हो चूका है कि-जो पहले मरेगा वह कहने के लिए आयेगा । इन चार कारणों से देवता देवलोक में उत्पन्न होते ही मूर्छित यावत्-आसक्त नहीं होता है और मनुष्य लोक में आ सकता है। सूत्र - ३४६
लोक में अन्धकार चार कारणों से होता है । यथा-अर्हन्तों के मोक्ष जाने पर, अर्हन्त कथित धर्म के लुप्त होने पर, पूर्वो का ज्ञान नष्ट होने पर, अग्नि न रहने पर।
लोक में उद्योत चार कारणों से होता है । यथा-अर्हन्तों के जन्म समय में, अर्हन्तों के प्रव्रजित होते समय, अर्हन्तों के केवलज्ञान महोत्सव में, अर्हन्तों के निर्वाण महोत्सव में ।
इसी प्रकार देवलोक में अन्धकार, उद्योत, देव समुदाय का एकत्र होना, उत्साहित होना और आनन्दजन्य कोलाहल होना के चार-चार भांगे कहें।
देवेन्द्र-यावत् लोकान्तिक देव चार कारणों से मनुष्य लोक में आते हैं। तीसरे स्थान में कथित तीन कारणों में "अरिहंतों के निर्वाणमहोत्सव का एक कारण बढ़ाए।" सूत्र - ३४७
दुखशय्या चार प्रकार की है। उनमें यह प्रथम दुख शय्या है । यथा-एक व्यक्ति मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होकर निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा करता है तो वह मानसिक दुविधा में धर्म विपरीत विचारों से निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं रखता है । निर्ग्रन्थ प्रवचन में अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि रखने पर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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