Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 52
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं । कोई अपने पाप की उदीरणा करता है किन्तु दूसरे के पाप की उदीरणा नहीं करता । इस प्रकार चार भंग जानना । चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-कोई अपने पाप को शांत करता है, दूसरों के पाप को शान्त नहीं करता इसी तरह चौभंगी जानना। चार प्रकार के पुरुष हैं, कोई स्वयं तो अभ्युत्थान आदि से दूसरों का सम्मान करते हैं परन्तु दूसरों के अभ्युत्थान से अपना सम्मान नहीं कराते हैं । इत्यादि-चौभंगी । इसी तरह कोई स्वयं वन्दन करता है किन्तु दूसरों से वन्दन नहीं कराता है। इसी तरह सत्कार, सम्मान, पूजा, वाचना, सूत्रार्थ ग्रहण करना, सूत्रार्थ पूछना, प्रश्न का उत्तर देना, आदि जानें। चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-कोई सूत्रधर होता है अर्थधर नहीं होता, कोई अर्थधर होता है, सूत्रधर नहीं होता । कोई सूत्रधर भी होता है और अर्थधर भी होता है, कोई सूत्रधर भी नहीं होता और अर्थधर भी नहीं होता। सूत्र - २७० असुरेन्द्र, असुरकुमार-राज चमर के चार लोकपाल कहे गए हैं, यथा-सोम, यम, वरुण और वैश्रमण । इसी तरह बलीन्द्र के भी सोम, यम, वैश्रमण और वरुण चार लोकपाल हैं। धरणेन्द्र के कालपाल, कोलपाल, शैलपाल और शंखपाल । इसी तरह भूतानन्द के कालपाल, कोलपाल, शंखपाल और शैलपाल नामक चार लोकपाल हैं । वेणुदेव के चित्र, विचित्र, चित्रपक्ष और विचित्रपक्ष । वेणुदाली के चित्र, विचित्र, विचित्रपक्ष और चित्रपक्ष । हरिकांत के प्रभ, सुप्रभ, प्रभाकान्त और सुप्रभाकान्त । हरिस्सह के प्रभ, सुप्रभ, सुप्रभाकान्त और प्रभाकान्त । अग्निशिख के तेज, तेजशिख, तेजस्कान्त और तेजप्रभ । अग्निमानव के तेज, तेजशिख, तेजप्रभ और तेजस्कान्त । पूर्णइन्द्र के रूप, रूपांश, रूपकान्त और रूपप्रभ । विशिष्ट इन्द्र के रूप, रूपांश, रूपप्रभ और रूपकान्त । जलकान्त इन्द्र के जल, जलरत, जलकान्त और जलप्रभ । जलप्रभ के जल, जलरत, जलप्रभ और जलकान्त । अमितगत के त्वरितगति, क्षिप्रगति, सिंहगति और विक्रमगति । अमितवाहन के त्वरितगति, क्षिप्रगति, विक्रमगति और सिंहगति। वेलम्ब के काल, महाकाल, रिष्ट और अंजन । घोष के आवर्त, व्यावर्त, नंद्यावर्त और महानंद्यावर्त । महाघोष के आवर्त, व्यावर्त, महानंद्यावर्त और नंद्यावर्त । शक्र के सोम, यम, वरुण और वैश्रमण । ईशानेन्द्र के सोम, यम, वैश्रमण और वरुण। इस प्रकार एक के अन्तर से अच्युतेन्द्र तक चार-चार लोकपाल समझने चाहिए । वायुकुमार के लोकपाल चार प्रकार के हैं, यथा-काल, महाकाल, वेलम्ब और प्रभंजन। सूत्र - २७१ चार प्रकार के देव हैं, भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, विमानवासी। सूत्र-२७२ चार प्रकार के प्रमाण हैं, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण, भावप्रमाण । सूत्र-२७३ चार प्रकार की दिक्कुमारियाँ कही गई हैं-रूप, रूपांशा, सुरूपा और रूपावती । चार प्रधान विद्युत्कुमारियाँ कही गई हैं, यथा-चित्रा, चित्रकनका, शतेरा और सौदामिनी । सूत्र-२७४ देवेन्द्र, देवराज शक्र की मध्यपरीषद् के देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। देवेन्द्र देवराज ईशान की मध्यमपरीषद् की देवियों की चार पल्योपम की स्थिति कही गई है। सूत्र - २७५ संसार चार प्रकार का है, द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भावसंसार । सूत्र-२७६ चार प्रकार का दृष्टिवाद है, परिक्रम, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग । मुनि दीपरत्नसागर कृत् (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद” Page 52

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