Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 64
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक अर्थात् गो पुच्छ की आकृति वाले हैं । सभी अंजनक पर्वत अंजन रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, कोमल हैं, घुटे हुए और घिसे हुए हैं । रज, मल और कर्दम रहित हैं । अनिन्द्य सुषमा वाले हैं, स्वतः चमकने वाले हैं । उनसे किरणें नीकल रही हैं, अतः उद्योतित हैं । वे प्रासादीय, दर्शनीय हैं, मनोहर एवं रमणीय हैं। उन अंजनक पर्वतों का ऊपरीतल समतल है । उन समतल उपरीतलों के मध्य भाग में चार सिद्धायतन हैं। उन सिद्धायतनों की लम्बाई एक सौ योजन की है, चौड़ाई पचास योजन की है और ऊंचाई बहत्तर योजन की है। उन सिद्धायतनों की चार दिशाओं यथा-देवद्वार, असुरद्वार, नागद्वार और सुपर्णद्वार | उन द्वारों पर चार प्रकार के देव रहते हैं । यथा-देव, असुर, नाग और सुपर्ण। उन द्वारों के आगे चार मुखमण्डप हैं । उन मुखमण्डपों के आगे चार प्रेक्षाधर मण्डप हैं। उन प्रेक्षाघर मण्डपों के मध्य भाग में चार वज्रमय अखाड़े हैं । उन वज्रमय अखाड़ों के मध्य भाग में चार मणिपीठिकाएं हैं । उन मणिपीठिकाओं के ऊपर चार सिंहासन हैं । उन सिंहासनों पर चार विजयदूष्य हैं । उन विजयदूष्यों के मध्यभाग में चार वज्रमय अंकुश हैं । उन वज्रमय अंकुशों पर लघु कुंभाकार मोतीयों की चार मालाएं हैं । प्रत्येक माला अर्ध-प्रमाण वाली चार-चार मुक्तामालाओं से घिरी हुई हैं। उन प्रेक्षाघर मण्डपों के आगे चार मणिपीठिकाएं हैं । उन मणिपीठिकाओं पर चार चैत्य स्तूप हैं । प्रत्येक चैत्य स्तूपों की चारों दिशाओं में चार-चार मणिपीठिकाएं हैं । प्रत्येक मणिपीठिका पर पल्यंकासन वाली स्तूपाभिमुख सर्व रत्नमय चार जिनप्रतिमाएं हैं । उनके नाम-रिषभ, वर्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण । उन चैत्यस्तूपों के आगे चार मणिपीठिकाओं पर चार चैत्यवृक्ष हैं । उन चैत्यवृक्षों के सामने चार मणिपीठिकाएं हैं । उन मणिपीठि-काओं पर चार महेन्द्र ध्वजाएं हैं । उन महेन्द्र ध्वजाओं के सामने चार नंदा पुष्करणियाँ हैं । प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में चार वन खंड हैं। पूर्व में अशोक वन, दक्षिण में सप्तपर्ण वन, पश्चिम में चम्पक वन और उत्तर में आम्रवन । सूत्र- ३२९ पूर्व दिशावर्ती अंजनक पर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करणियाँ हैं । उनके नाम इस प्रकार हैनंदुत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना । उन पुष्करणियों की लम्बाई एक लाख योजन है। चौड़ाई पचास हजार योजन है और गहराई एक हजार योजन है । प्रत्येक पुष्करिणी की चारों दिशाओं में त्रिसोपान प्रतिरुपक हैं। उन त्रिसोपान प्रतिरूपकों के सामने पूर्वादि चार दिशाओं में चार तोरण हैं । प्रत्येक तोरण की पूर्वादि चार दिशाओं में चार वन खण्ड हैं । वन खण्डों के नाम इसी सूत्र के पूर्वोक्त है। उन पुष्करणियों के मध्यभाग में चार दधिमुख पर्वत है । इनकी ऊंचाई ६४,००० योजन, भूमि में गहराई एक हजार योजन की है । वे पर्वत सर्वत्र पल्यंक के समान आकार वाले हैं । इनकी चौड़ाई दस हजार योजन की है और परिधि इकतीस हजार छसो तेईस योजन की है। ये सभी रत्नमय यावत्-रमणीय है । उन दधिमुख पर्वत के ऊपर का भाग समतल है। शेष समग्र कथन अंजनक पर्वतों के समान यावत्-उत्तर में आम्रवन तक कहना।। दक्षिण दिशा में अंजनक पर्वत की चार दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ हैं । उनके नाम हैं-भद्रा, विसाला, कुमुद और पोंडरिकिणी । पुष्करणियों का शेष वर्णन यावत्-दधिमुखपर्वत वनखण्ड पर्यन्त तक कहें । पश्चिम दिशा के अंजनक पर्वत की चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ हैं । उनके नाम हैं-नन्दिसेना, अमोघा, गोस्तूपा और सुदर्शना । शेष वर्णन पूर्ववत् । उत्तर दिशा के अंजनक पर्वत की चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्क-रिणियाँ हैं । उनके नाम हैं-विजया, वेजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता । शेष वर्णन पूर्ववत्।। वलयाकार विष्कम्भ वाले नन्दीश्वर द्वीप के मध्य भाग में चार विदिशाओं में चार रतिकर पर्वत हैं । उत्तर पूर्व में, दक्षिण पूर्व में, दक्षिण पश्चिम में और उत्तर पश्चिम में । वे रतिकर पर्वत एक हजार योजन ऊंचे हैं, एक हजार गाउ भूमि में गहरे हैं । झालर के समान सर्वत्र सम संस्थान वाले हैं । दस हजार योजन की उनकी चौड़ाई है । इकतीस हजार छह सौ तेईस योजन उनकी परिधि है । सभी रत्नमय, यावत्-रमणीय हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 64

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