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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-२५१
प्रतिमाधारी अनगार को चार भाषाएं बोलना कल्पता है, यथा-याचनी, प्रच्छनी, अनुज्ञापनी, प्रश्नव्याकरणी सूत्र - २५२
चार प्रकार की भाषाएं कही गई हैं, यथा-सत्यभा, मृषा, सत्य-मृषा और असत्यमृषा-व्यवहार भाषा। सूत्र-२५३
चार प्रकार के वस्त्र कहे गए हैं, यथा-शुद्ध तन्तु आदि से बुना हुआ भी है और बाह्य मेल से रहित भी है। शुद्ध बुना हुआ तो है परन्तु मलिन है, शुद्ध बुना हुआ नहीं परन्तु स्वच्छ है। शुद्ध बुना हुआ भी नहीं है और स्वच्छ भी नहीं है इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-जाति आदि से शुद्ध और ज्ञानादी गुण से भी शुद्ध । इत्यादि चार भंग इसी तरह परिणत और रूप से भी वस्त्र की चौभंगी और पुरुष की चौभंगी समझ लेनी चाहिए।
चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-जात्यादि से शुद्ध और मन से भी शुद्ध । इत्यादि चार भंग । इसी तरह संकल्प यावत्-पराक्रम से भी चार भंग जानने चाहिए। सूत्र- २५४
चार प्रकार के पुत्र कहे गए हैं, अतिजात अपने पिता से भी बढ़ा चढ़ा हुआ, अनुजात पिता के समान, अवजात पिता से कम गुण वाला, कुलांगार कुल में कलंक लगाने वाला। सूत्र - २५५
चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-कितने द्रव्य से भी सत्य और भाव से भी सत्य होते हैं । कितने द्रव्य से सत्य और भाव से असत्य होते हैं । इत्यादि चार भंग । इसी तरह परिणत यावत्-पराक्रम से चार भंग जानने चाहिए।
चार प्रकार के वस्त्र कहे गए हैं, यथा-कितनेक स्वभाव से भी पवित्र और संस्कार से भी पवित्र, कितनेक स्वभाव से पवित्र परन्तु संस्कार से अपवित्र इत्यादि चार भंग । इसी तरह चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-शरीर से भी पवित्र और स्वभाव से भी पवित्र । इत्यादि चार भंग । शुद्ध वस्त्र के चार भंग पहले कहे हैं उसी प्रकार शुचिवस्त्र के भी चार भंग समझने चाहिए। सूत्र-२५६
चार प्रकार के कोर कहे गए हैं, यथा-आम्रफल के कोर, ताड़ के फल के कोर, वल्लीफल के कोर, मेंढ़े के सिंग के समान फल वाली वनस्पति के कोर । इसी प्रकार चार प्रकार के पुरुष कहे गए हैं, यथा-आम्रफल के कोर के समान, तालफल के कोर के समान, वल्ली फल के कोर के समान, मेंढ़े के विषाण के तुल्य वनस्पति के कोर के समान सूत्र - २५७
चार प्रकार के धुन कहे गए हैं, यथा-लकड़ी के बाहर की त्वचा को खाने वाले, छाल खाने वाले, लकड़ी खाने वाले, लकड़ी का सारभाग खाने वाले । इसी प्रकार चार प्रकार के भिक्षु कहे गए हैं, यथा-त्वचा खाने वाले, धुन के समान यावत्-सार खाने वाले धुन के समान । त्वचा खाने वाले धुन के जैसे भिक्षु का तप सार खाने वाले धुन के जैसा है । छाल खाने वाले धुन के जैसे भिक्षु का तप काष्ठ खाने वाले धुन के जैसा है । काष्ठ खाने वाले धुन के जैसे भिक्षु का तप छाल खाने वाले धुन के जैसा है। सार खाने वाले धुन के जैसा भिक्षु का तप त्वचा खाने वाले धुन के जैसा है। सूत्र-२५८
तृण वनस्पतिकायिक चार प्रकार के कहे गए हैं, यथा-अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज और स्कंधबीज । सूत्र-२५९
चार कारणों से नरक में नवीन उत्पन्न नैरयिक मनुष्य लोक में शीघ्र आने की ईच्छा करता है परन्तु आने में समर्थ नहीं होता है, यथा-नरकलोक में नवीन उत्पन्न हुआ नैरयिक वहाँ होने वाली प्रबल वेदना का अनुभव करता हुआ मनुष्यलोक शीघ्र आने की ईच्छा करता है किन्तु शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता है, नरकपालों के द्वारा पुनः पुनः आक्रान्त होने पर मनुष्यलोक में जल्दी आने की ईच्छा करता है परन्तु आने में समर्थ नहीं होता है, नरक-वेदनीय कर्म
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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