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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक तीन कारणों से पूर्ण पृथ्वी चलायमान होती है, यथा-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे घनवात क्षुब्ध होने से घनोदधि कम्पित होता है । कम्पित होता हुआ घनोदधि समग्र पृथ्वी को चलायमान करता है । महर्धिक-यावत् महेश कहा जाने वाला देव तथारूप श्रमण-माहन को ऋद्धि, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार पराक्रम बताता हुआ समग्र पृथ्वी को चलायमान करता है । देव तथा असुरों का संग्राम होने पर समस्त पृथ्वी चलायमान होती है। सूत्र - २१३
किल्बिषिक देव तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-तीन पल्योपम की स्थिति वाले, तीन सागरोपम की स्थिति वाले, तेरह सागरोपम की स्थिति वाले।
हे भगवन् ! तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव कहाँ रहते हैं ? ज्योतिष्क देवों के ऊपर और सौधर्म-ईशानकल्प के नीचे तीन पल्योपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव रहते हैं । हे भगवन् ! तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव कहाँ रहते हैं? सौधर्म ईशान देवलोक के ऊपर और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प के नीचे तीन सागरोपम की स्थिति वाले किल्बिषिक देव रहते हैं । तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्बिषिक देव कहाँ रहते हैं ? ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर और लान्तक कल्प के नीचे यह किल्बिषिक देव रहते हैं। सूत्र-२१४
देवराज देवेन्द्र शक्र की बाह्य परीषद के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है । देवराज देवेन्द्र शक्र की आभ्यन्तर परीषद की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की है । देवराज देवेन्द्र ईशान के बाह्य परीषद देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की कही गई हैं। सूत्र- २१५
प्रायश्चित्त तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा-ज्ञानप्रायश्चित्त, दर्शनप्रायश्चित्त और चारित्र-प्रायश्चित्त ।
तीन को अनुद्घातिक गुरु प्रायश्चित्त कहा गया है, यथा-हस्तकर्म करने वाले को, मैथुन सेवन करने वाले को, रात्रिभोजन करने वाले को।
तीन को पारांचिक प्रायश्चित्त कहा गया है, यथा-कषाय और विषय से अत्यन्त दुष्ट को परस्पर स्त्यान-गृद्धि निद्रा वाले को, गुदा मैथुन करने वालों को।
तीन को अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त कहा गया है, यथा-साधर्मिकों की चोरी करने वाले को, अन्यधार्मिकों की चोरी करने वाले को, हाथ आदि से मर्मान्तक प्रहार करने वाले को। सूत्र-२१६
तीन को प्रव्रजित करना नहीं कल्पता है, यथा-पण्डक को, वातिक को, क्लीब-असमर्थ को। इसी तरह उक्त तीन को मुण्डित करना, शिक्षा देना, महाव्रतों का आरोपण करना, एक साथ बैठकर भोजन करना तथा साथ में रखना नहीं कल्पता है। सूत्र- २१७
तीन वाचना देने योग्य नहीं है, यथा-अविनीत को, दूध आदि विकृति के लोलुपी को, अत्यन्त क्रोधी को । तीन को वाचना देना कल्पता है, यथा-विनीत को, विकृति में लोलुप न होने वाले को, क्रोध उपशान्त करने वाले को
तीन को समझाना कठिन है, यथा-दुष्ट को, मूढ़ को और दुराग्रही को । तीन को सरलता से समझाया जा सकता है, यथा-अदुष्ट को, अमूढ़ को और अदुराग्रही को। सूत्र - २१८
तीन माण्डलिक पर्वत कहे गए हैं, यथा-मानुषोत्तर पर्वत, कुण्डलवर पर्वत, रुचकवर पर्वत । सूत्र - २१९
तीन बड़े से बड़े कहे गए हैं, यथा-सब मेरु पर्वतों में जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत, समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र, कल्पों में ब्रह्मलोक कल्प।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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