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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक तीन स्थान निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए अहितकर, अशुभ, अयुक्त, अकल्याणकारी, अमुक्तकारी और अशुभानुबन्धी होते हैं, यथा-आर्तस्वर क्रन्दन करना, शय्या उपधि आदि के दोषोद्भावन युक्त प्रलाप करना, दुर्ध्यान 'आर्त-रौद्रध्यान करना । तीन स्थान साधु और साध्वीयों के लिए हीतकर, शुभ, युक्त, कल्याणकारी और शुभानुबन्धी होते हैं, यथा-आर्त्तस्वर क्रन्दन न करना, दोषोद्भावन गर्भित प्रलाप नहीं करना, अपध्यान नहीं करना
शल्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शनशल्य ।
तीन कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या वाला होता है, यथा-आतापना लेने से, क्षमा रखने से, जलरहित तपश्चर्या करने से । तीन मास की भिक्षु-प्रतिमा को अंगीकार करने वाले अनगार को तीन दत्ति भोजन की और तीन दत्ति जल की लेना कल्पता है।
एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा का सम्यग् आराधन नहीं करने वाले साधु के लिए वे तीन स्थान अहीतकर, अशुभकर, अयुक्त, अकल्याणकारी और अशुभानुबन्धी होते हैं, यथा-वह पागल हो जाए, दीर्घकालीन रोग उत्पन्न हो जाए, केवलि प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाए । एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा का सम्यग् आराधन करने वाले अनगार के लिए ये तीन स्थान हीतकर, शुभकारी, युक्त, कल्याणकारी और शुभानुबन्धी होते हैं, यथा-उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो, मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न हो, केवलज्ञान उत्पन्न हो । सूत्र - १९६
जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमियाँ कही गई हैं, भरत, एरवत और महाविदेह । इसी प्रकार धातकी खण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में यावत् अर्धपुष्करवरद्वीप के पश्चिमार्द्ध में भी तीन तीन कर्मभूमियाँ कही गई हैं। सूत्र-१९७
दर्शन तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और मिश्रदर्शन ।
रुचि तीन प्रकार की है, यथा-सम्यग्रुचि, मिथ्यारुचि और मिश्ररुचि । प्रयोग तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग् प्रयोग, मिथ्याप्रयोग और मिश्रप्रयोग। सूत्र-१९८
___व्यवसाय तीन प्रकार के हैं, यथा-धार्मिक व्यवसाय, अधार्मिक व्यवसाय, मिश्र व्यवसाय । अथवा-तीन प्रकार व्यवसाय ज्ञान कहे गए हैं, यथा-प्रत्यक्ष अवधि आदि प्रात्ययिक इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला और आनुगामिक। __अथवा तीन प्रकार के व्यवसाय कहे गए हैं, यथा-ऐहलौकिक व्यवसाय, पारलौकिक व्यवसाय, उभयलौकिक व्यवसाय । ऐहलौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-लौकिक, वैदिक और सामयिक । लौकिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-अर्थ, धर्म और काम, वैदिकव्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-ऋग्वेद में कहा हुआ, यजुर्वेद में कहा हुआ, सामवेद में कहा हुआ । सामयिक व्यवसाय तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ।
तीन प्रकार की अर्थयोनि कही गई है, यथा-साम, दण्ड और भेद । सूत्र-१९९
तीन प्रकार के पुद्गल कहे गए हैं, यथा-प्रयोगपरिणत, मिश्रक्षपरिणत और स्वतःपरिणत । नरकावास तीन के आधार पर रहे हुए हैं, यथा-पृथ्वी के आधार पर, आकाश के आधार पर, स्वरूप के आधार पर नैगम संग्रह और व्यवहार नय से पृथ्वीप्रतिष्ठित । ऋजुसूत्र नय के अनुसार आकाशप्रतिष्ठित । तीन शब्दनयों के अनुसार आत्मप्रतिष्ठित। सूत्र- २००
मिथ्यात्व तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-अक्रिया मिथ्यात्व, अविनय मिथ्यात्व, अज्ञान मिथ्यात्व। अक्रिया दुष्ट क्रिया तीन प्रकार की कही गई है, यथा-प्रयोगक्रिया, सामुदानिक क्रिया, अज्ञान क्रिया । प्रयोग
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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