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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक इसी प्रकार उपसम्पदा और पदवी का त्याग भी समझना। सूत्र-१८८
तीन प्रकार के वचन कहे गए हैं, यथा-तद्वचन, तदन्य वचन और नोवचन तीन प्रकार के अवचन कहे गए हैं, यथा-नो तद्वचन, नो तदन्य वचन और अवचन ।
तीन प्रकार के मन कहे गए हैं, यथा-तदमन, तदन्यमन और अमन । सूत्र-१८९
तीन कारणों से अल्पवृष्टि होती है, यथा-उस देश में या प्रदेश में बहुत से उदक योनि के जीव अथवा पुद्गल उदक रूप से उत्पन्न नहीं होते हैं, नष्ट नहीं होते हैं, समाप्त नहीं होते हैं, पैदा नहीं होते हैं । नाग, देव, यक्ष और भूतों की सम्यग् आराधना नहीं करने से वहाँ उठे हुए उदक पुद्गल-मेघ को जो बरसने वाला है उसे वे देव आदि अन्य देश में लेकर चले जाते हैं । उठे हुए परिपक्व और बरसने वाले मेघ को पवन बिखेर डालता है।
तीन कारणों से महावृष्टि होती है, यथा-उस देश में या प्रदेश में उदक योनि के जीव और पुद्गल उदक रूप से उत्पन्न होते हैं, समाप्त होते हैं, नष्ट होते हैं और पैदा होते हैं । देव, यक्ष, नाग और भूतों की सम्यग् आराधना करने से अन्यत्र उठे हुए परिपक्व और बरसने वाले मेघ को उस प्रदेश में ला देते हैं । उठे हुए, परिपक्व बने हुए और बरसने वाले मेघ को वायु नष्ट न करे । इन तीन कारणों से महावृष्टि होती है। सूत्र - १९०
तीन कारणों से देवलोक में नवीन उत्पन्न देव मनुष्य-लोक में शीघ्र आने की ईच्छा करने पर भी शीघ्र आने में समर्थ नहीं होता है, यथा-देवलोक में नवीन उत्पन्न देव दिव्य कामभोगों में मूर्छित होने से, गृहयुद्ध होने से, स्नेहपाश में बंधा हुआ होने से, तन्मय होने से वह मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगों को आदर नहीं देता है, अच्छा नहीं समझता है, उनसे कुछ प्रयोजन है ऐसा निश्चय नहीं करता है, उनकी ईच्छा नहीं करता है, ये मुझे मिले ऐसी भावना नहीं करता।
देवलोक में नवीन उत्पन्न हुआ, देव दिव्य कामभोगों में मूर्छित, गृद्ध, आभक्त और तन्मय होने से उसका मनुष्य सम्बन्धी प्रेमभाव नष्ट हो जाता है और दिव्य कामभोगों के प्रति आकर्षण होता है । देवलोक में नवीन उत्पन्न देव दिव्य कामभोगों में मूर्छित यावत तन्मय बना हआ ऐसा सोचना है कि अभी न जाऊं एक मुहर्त के बाद ज नाटकादि पूरे हो जाएगा तब जाऊंगा । इतने काल में तो अल्प आयुष्य वाले मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । इन तीन कारणों से नवीन उत्पन्न हुआ देव मनुष्य लोक में शीघ्र आने की ईच्छा करने पर भी शीघ्र नहीं आ सकता है।
तीन कारणों से देवलोक में नवीन उत्पन्न देव मनुष्यलोक में शीघ्र आने की ईच्छा करने पर शीघ्र आने में समर्थ होता है, यथा-देवलोक में नवीन उत्पन्न हुआ देव दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित नहीं होने से, गृद्ध नहीं होने से, आसक्त नहीं होने से उसे ऐसा विचार होता है कि- मनुष्य-भव में भी मेरे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर अथवा गणावच्छेदक हैं जिनके प्रभाव से मुझे यह इस प्रकार की देवता की दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य देवशक्ति मिली, प्राप्त हुई, उपस्थित हुई अतः जाऊं और उन भगवान को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ, सत्कार करूँ, कल्याणकारी, मंगलकारी, देव स्वरूप मानकर उनकी सेवा करूँ । देवलोक में उत्पन्न हुआ देव दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित नहीं होने से यावत्-तन्मय नहीं होने से ऐसा विचार करता है कि इस मनुष्यभव में ज्ञानी हैं, तपस्वी हैं और अतिदुष्कर क्रिया करने वाले हैं अतः जाऊं और उन भगवंतों को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ यावत् उनकी सेवा करूँ । देवलोक में नवीन उत्पन्न हुआ देव दिव्य कामभोगों में मूर्च्छित यावत् तन्मय नहीं होता हुआ ऐसा विचार करता है कि-मनुष्यभव में मेरी माता-यावत् मेरी पुत्रवधू है इसलिए जाऊं और उनके समीप प्रकट होऊं जिससे वे मेरी इस प्रकार की मिली हुई, प्राप्त हुई और सम्मुख उपस्थिति हुई दिव्य देवर्द्धि, दिव्य द्युति और दिव्य देवशक्ति को देखें । इन तीन कारणों से देवलोक में नवीन उत्पन्न हुआ देव मनुष्य लोक में शीघ्र आ सकता है। सूत्र - १९१
तीन स्थानों की देवता भी अभिलाषा करते हैं, यथा-मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र में जन्म और उत्तम कुल में उत्पत्ति ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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