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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक हूँ कि कर्म करने से दुःख होता है, कर्मों का स्पर्श करने से दुःख होता है, क्रियमाण और कृत कर्मों से दुःख होता है, प्राण, भूत, जीव और सत्वकर्म करके वेदना का अनुभव करते हैं । ऐसा कहना चाहिए।
स्थान-३ - उद्देशक-३ सूत्र-१८१
तीन कारणों से मायावी माया करके भी आलोचना नहीं करता है, प्रतिक्रमण नहीं करता, निन्दा नहीं करता, गर्दा नहीं करता, उस विचार को दूर नहीं करता है, शुद्धि नहीं करता, पुनः नहीं करने के लिए तत्पर नहीं होता और यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपश्चर्या अंगीकार नहीं करता है, यथा-आलोचना करने से मेरा मान महत्त्व कम हो जाएगा अतः आलोचना न करूँ । इस समय भी मैं वैसा ही करता हूँ इसे निन्दनीय कैसे कहूँ ? भविष्य में भी मैं वैसा ही करूँगा इसलिए आलोचना कैसे करूँ।
तीन कारणों से मायावी माया करके भी उसकी आलोचना नहीं करता है, प्रतिक्रमण नहीं करता है, यावत्तपश्चर्या अंगीकार नहीं करता है, यथा-मेरी अपकीर्ति होगी, मेरा अवर्णवाद होगा, मेरा अविनय होगा। तीन कारणों से मायावी माया करके भी आलोचना नहीं करता है-यावत् तप अंगीकार नहीं करता है, यथा-मेरी कीर्ति क्षीण होगी, मेरा यश हीन होगा, मेरी पूजा व मेरा सत्कार कम होगा।
तीन कारणों से मायावी माया करके उसकी आलोचना करता है, यावत्-तप अंगीकार करता है, मायावी की इस लोक में निन्दा होती है, परलोक भी निन्दनीय होता है, अन्य जन्म भी गर्हित होता है । तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता है, यावत्-तप अंगीकार करता है, अमायी का यह लोक प्रशस्य होता है, परलोक में जन्म प्रशस्त होता है, अन्य जन्म भी प्रशंसनीय होता है। तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता है यावत्-तप अंगीकार करता है, ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, चारित्र के लिए।
सूत्र-१८२
तीन प्रकार के पुरुष हैं, सूत्र के धारक, अर्थ के धारक, उभय के धारक। सूत्र-१८३
साधू और साध्वीयों को तीन प्रकार के वस्त्र धारण करना और पहनना कल्पता है, यथा-ऊन का, सन का और सुत का बना हुआ । साधू और साध्वीयों को तीन प्रकार के पात्र धारण करन और परिभोग करने के लिए कल्पते हैं, यथा-तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र । सूत्र - १८४
तीन कारणों से वस्त्र धारण करना चाहिए, यथा-लज्जा के लिए, प्रवचन की निन्दा न हो इसलिए, शीतादि परीषह निवारण के लिए। सूत्र-१८५
आत्मा को रागद्वेष से बचाने के लिए तीन उपाय कहे गए हैं, यथा-धार्मिक उपदेश का पालन करे, उपेक्षा करे या मौन रहे, उस स्थान से उठकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाए । तृषादि से ग्लान निर्ग्रन्थ को प्रासुक जल की तीन दत्ति ग्रहण करना कल्पता है, यथा-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । सूत्र-१८६
तीन कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थ स्वधर्मी साम्भोगिक के साथ भोजनादि व्यवहार को तोड़ता हुआ वीतराग की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है, यथा-व्रतों में गुरुतर दोष लगाते हुए जिसे स्वयं देखा हो उसे, व्रतों में गुरुतर दोष लगाने की बात के सम्बन्ध में किसी श्रद्धालु से सुनी हो उसे, चौथी बार दोष सेवन करने वाले को। सूत्र- १८७
तीन प्रकार की अनुज्ञा कही गई है यथा-आचार्य जो आज्ञा दे, उपाध्याय जो आज्ञा दे, गणनायक जो आज्ञा दे तीन प्रकार की समनुज्ञा कही गई हैं, आचार्य जो आज्ञा दे, उपाध्याय जो आज्ञा दे, गणनायक जो आज्ञा दे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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