Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक दरिद्र (वर्तमान को श्रीमन्त) अपने इस स्वामी को सर्वस्व देता हुआ भी उसके उपकार का बदला नहीं चूका सकता है किन्तु वह अपने स्वामी को केवलिप्ररूपित धर्म बताकर समझाकर और प्ररूपणा कर उसमें स्थापित करता है तो इससे वह अपने स्वामी के उपकार का भलीभाँति बदला चूका सकता है। कोई व्यक्ति तथारूप श्रमण-माहन के पास से एक भी आर्य (श्रेष्ठ) धार्मिक सुवचन सूनकर-समझकर मृत्यु के समय मरकर किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह देव उन धर्माचार्य को दुर्भिक्ष वाले देश से सुभिक्ष वाले देश में ले जाकर रख दे, जंगल में भटकते हुए को जंगल से बाहर ले जाकर रख दे, दीर्घकालीन व्याधि - ग्रस्त को रोग मुक्त कर दे तो भी वह धर्माचार्य के उपकार का बदला नहीं चूका सकता है किन्तु वह केवलि प्ररूपित धर्म से (संयोगवश) भ्रष्ट हुए धर्माचार्य को पुनः केवलि-प्ररूपित धर्म बताकर यावत्-उसमें स्थापित कर देता है तो वह उन धर्माचार्य के उपकार का बदला चूका सकता है। सूत्र - १४४ तीन स्थानों (गुणों) से युक्त अनगार अनादि-अनन्त दीर्घ-मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर लेता है वे इस प्रकार है, यथा-निदान (भोग ऋद्धि आदि की ईच्छा) नहीं करने से, सम्यक्दर्शन युक्त होने से, समाधि रहने से । अथवा उपधान-तपश्चर्या पूर्वक श्रुत का अभ्यास करने से । सूत्र - १४५ तीन प्रकार की अवसर्पिणी कही गई है, यथा-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इस प्रकार छहों आरक का कथन करना चाहिए यावत् दुषमदुःषमा । तीन प्रकार की उत्सर्पिणी कही गई है, यथा-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इस प्रकार छ आरक समझने चाहिए-यावत् सुषमसुषमा। सूत्र-१४६ तीन कारणों से अच्छिन्न पुद्गल अपने स्थान से चलित होते हैं, यथा-आहार के रूप में जीव के द्वारा गृह्यमान होने पर पुद्गल अपने स्थान से चलित होते हैं, वैक्रिय किये जाने पर उसके वशवर्ति होकर पुद्गल स्वस्थान से चलित होते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर संक्रमण किये जाने पर (ले जाये जाने पर) पुद्गल स्वस्थान से चलित होते हैं। उपधि तीन प्रकार की कही गई है, यथा-कर्मोपधि, शरीरोपधि और बाह्यभाण्डोपकरणोपधि । असुकुमारों के तीन प्रकार की उपधि कहनी चाहिए। यों एकेन्द्रिय और नारक को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त तीन प्रकार की उपधि समझनी चाहिए । अथवा तीन प्रकार की उपधि कही गई है, यथा-सचित्त, अचित्त और मिश्र । इस प्रकार निरन्तर नैरयिक जीवों को यावत्-वैमानिकों को तीनों ही प्रकार की उपधि होती है। परिग्रह तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-कर्म-परिग्रह, शरीर-परिग्रह, बाह्यभाण्डोपकरण-परिग्रह । असुर कुमारों को तीनों प्रकार का परिग्रह होता है। यों एकेन्द्रिय और नारक को छोड़कर वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए। अथवा तीन प्रकार का परिग्रह कहा गया है, यथा-सचित्त, अचित्त और मिश्र । निरन्तर नैरयिक यावत् विमानवासी देवों को तीनों प्रकार का परिग्रह होता है। सूत्र - १४७ तीन प्रकार का प्रणिधान (एकाग्रता) कहा गया है, यथा-मन-प्रणिधान, वचन-प्रणिधान और काय-प्रणिधान । यह तीन प्रकार का प्रणिधान पंचेन्द्रियों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सब दण्डकों में पाया जाता है। तीन प्रकार का सुप्रणिधान कहा गया है, यथा-मन का सुप्रणिधान, वचन का सुप्रणिधान, काय का सुप्रणिधान । संयत मनुष्यों का तीन प्रकार का सुप्रणिधान कहा गया है, यथा-मन का सुप्रणिधान, वचन का सुप्रणिधान, काय का सुप्रणिधान। तीन प्रकार का अशुभ प्रणिधान है, मन का अशुभ प्रणिधान, वचन का अशुभ प्रणिधान, काय का अशुभ प्रणिधान । यह पंचेन्द्रिय से वैमानिक पर्यन्त होता है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 31

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158