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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक सूत्र-७४
काल दो प्रकार का कहा गया है, यथा-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी।
आकाश दो प्रकार का है, यथा-लोकाकाश और अलोकाकाश । सूत्र - ७५
नैरयिक जीवों के दो शरीर कहे गए हैं, यथा-आभ्यन्तर और बाह्य । कार्मण आभ्यन्तर हैं और वैक्रिय बाह्य शरीर हैं । देवताओं के शरीर भी इसी तरह कहने चाहिए।
पृथ्वीकायिक जीवों के दो शरीर कहे गए हैं, यथा-आभ्यन्तर और बाह्य । कार्मण आभ्यन्तर हैं और औदारिक बाह्य हैं । वनस्पतिकायिक जीव पर्यन्त ऐसा समझना चाहिए। द्वीन्द्रिय जीवों के दो शरीर कहे गए हैं, यथा-आभ्यन्तर
और बाह्य । कार्मण आभ्यन्तर हैं और हड्डी, माँस, रक्त से बना हुआ औदारिक शरीर बाह्य है । चतुरिन्द्रिय जीव पर्यन्त ऐसा ही समझना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनि के जीवों के दो शरीर हैं, आभ्यन्तर और बाह्य । कार्मण आभ्यन्तर हैं
और हड्डी, माँस, रक्त, स्नायु और शिराओं से बना हुआ औदारिक शरीर बाह्य है । इसी तरह मनुष्यों के भी दो शरीर समझने चाहिए।
विग्रहगति-प्राप्त नैरयिकों के दो शरीर कहे गए हैं, यथा-तैजस और कार्मण । इस प्रकार निरन्तर वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए । नैरयिक जीवों के शरीर की उत्पत्ति दो स्थानों से होती है यथा-राग से और द्वेष से । नैरयिक जीवों के शरीर दो कारणों से पूर्ण अवयव वाले होते हैं, यथा-राग से द्वेष से । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त समझना।
दो काय- जीव समुदाय है, त्रसकाय और स्थावरकाय । त्रसकाय दो प्रकार का है, भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक । इसी प्रकार स्थावरकाय भी समझना। सूत्र - ७६
दो दिशाओं के अभिमुख होकर निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को दीक्षा देना कल्पता है । यथा-पूर्व और उत्तर । इसी प्रकार-प्रव्रजित करना, सूत्रार्थ सिखाना, महाव्रतों का आरोपण करना, सहभोजन करना, सहनिवास करना, स्वाध्याय करने के लिए कहना, अभ्यस्तशास्त्र को स्थिर करने के लिए कहना, अभ्यस्तशास्त्र अन्य को पढ़ाने के लिए कहना, आलोचन करना, प्रतिक्रमण करना, अतिचारों की निन्दा करना, गुरु समक्ष अतिचारों की गर्दा करना, लगे हुए दोष का छेदन करना, दोष की शुद्धि करना, पुनः दोष न करने के लिए तत्पर होना, यथायोग्य प्रायश्चित्त और तपग्रहण करना कल्पता है।
दो दिशाओं के अभिमुख होकर निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को मारणान्तिक संलेखना-तप विशेष से कर्म-शरीर को क्षीण करना, भोजन-पानी का त्याग कर पादपोपगमन संथारा स्वीकार कर मृत्यु की कामना नहीं करते हुए स्थित रहना कल्पता है, यथा-पूर्व और उत्तर ।
स्थान-२ - उद्देशक-२ सूत्र - ७७
जो देव ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं वे चाहे कल्पोपपन्न हों चाहे विमानोपपन्न हों और जो ज्योतिष्चक्र में स्थित हों वे चाहे गतिरहित हों या सतत गमनशील हों वे जो, सदा-सतत-पापकर्म ज्ञानावरणादि का बंध करते हैं उसका फल कतिपय देव तो उसी भव में अनुभव कर लेते हैं और कतिपय देव अन्य भव में वेदन करते हैं।
नैरयिक जीव जो सदा-सतत-पापकर्म का बंध करते हैं उसका फल कतिपय नैरयिक तो उसी भव में अनुभव कर लेते हैं और कितनेक अन्य भव में भी वेदना वेदते हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव पर्यन्त ऐसा ही समझना चाहिए । मनुष्यों द्वारा जो सदा-सतत-पापकर्म का बंध किया जाता है उसका फल कतिपय इस भवमें वेदते हैं और कतिपय अन्य भवमें अनुभव करते हैं। मनुष्य को छोड़कर शेष अभिलाप समान समझना। सूत्र-७८
नैरयिक जीवों की दो गति और दो आगति कही गई है, यथा-नैरयिक जीवों के बीच उत्पन्न होता हुआ या तो
मुनि दीपरत्नसागर कृत् - (स्थान) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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