Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 23
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक ऋषिपालक । भूतवादीन्द्र दो कहे गए हैं, यथा-ईश्वर और महेश्वर । क्रन्दितेन्द्र दो कहे गए हैं, यथा-सुवत्स और विशाल महाक्रन्दितेन्द्र दो कहे गए हैं, हास्य और हास्यरति । कुभांडेन्द्र दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-श्वेत और महाश्वेत । पतंगेन्द्र दो कहे गए हैं, यथा-पतय और पतयपति । ज्योतिष्क देवों के दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा-चन्द्र और सूर्य । बारह देवलोकों के दस इन्द्र हैं । यथा-सौधर्म और ईशान कल्प में दो इन्द्र हैं, शक्र और ईशान । सनत्कुमार और माहेन्द्र में दो इन्द्र कहे गए हैं, सनत्कुमार और माहेन्द्र । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प में दो इन्द्र कहे गए हैं, यथाब्रह्म और लान्तक । महाशुक्र और सहस्रार कल्प में दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा-महाशुक्र और सहस्रार । आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्प में दो इन्द्र कहे गए हैं, यथा-प्राणत और अच्युत इस प्रकार सब मिलकर चौंसठ इन्द्र होते हैं महाशुक्र और सहस्रार कल्प में विमान दो वर्ण के हैं, यथा-पीले और श्वेत । ग्रैवेयक देवों की ऊंचाई दो हाथ की है। स्थान-२- उद्देशक-४ सूत्र- ९९ समय अथवा आवलिका जीव और अजीव कहे जाते हैं । श्वासोच्छ्वास अथवा स्तोक जीव और अजीव कहे जाते हैं । इसी तरह-लव, मुहूर्त और अहोरात्र पक्ष और मास ऋतु और अयन संवत्सर और युग सौ वर्ष और हजार वर्ष लाख वर्ष और क्रोड़ वर्ष त्रुटितांग और त्रुटित, पूर्वांग अथवा पूर्व, अडडांग और अडड, अववांग और अवव, हुहूतांग और हहत, उत्पलांग और उत्पल, पद्मग और पद्म, नलिनांग और नलिन, अक्षनिकुरांग और अक्षि-निकुर अयुतांग और अयुत, नियुतांग और नियुत, प्रयुतांग और प्रयुत, चूलिकांग और चूलिक, शीर्ष प्रहेलिकांग और शीर्ष प्रहेलिका, पल्योपम और सागरोपम, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये सब जीव और अजीव कहे जाते हैं। ग्राम अथवा नगर, निगम, राजधानी, खेड़ा, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, आकर, आश्रम, संवाह, सन्निवेश, गोकुल, आराम, उद्यान, वन, वनखंड, बावड़ी, पुष्करिणी, सरोवर, सरोवरों की पंक्ति, कूप, तालाब, ह्रद, नदी, रत्नप्रभादिक पृथ्वी, घनोदधि, वातस्कन्ध (घनवात तनुवात), अन्य पोलार (वातस्कन्ध के नीचे का आकाश जहाँ सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव भरे हैं), वलय (पृथ्वी के घनोदधि, घनवात, तनुवातरूप वेष्टन), विग्रह (लोकनाड़ी) द्वीप, समुद्र, वेला, वेदिका, द्वार, तोरण, नैरयिक नरकवास, वैमानिक, वैमानिकों के आवास, कल्पविमानावास, वर्ष क्षेत्र वर्षधर पर्वत, कूट, कूटागार, विजय राजधानी ये सब जीवाजीवात्मक होने से जीव और अजीव कहे जाते हैं। छाया, आतप, ज्योत्स्ना, अन्धकार, अवमान, उन्मान, अतियान गृह, उद्यानगृह, अवलिम्ब, सणिप्पवाय ये सब जीव और अजीव कहे जाते हैं, (जीव और अजीव से व्याप्त होने के कारण अभेदनय की अपेक्षा से जीव या अजीव कहे जाते हैं)। सूत्र-१०० दो राशियाँ कही गई हैं, यथा-जीव-राशि और अजीव-राशि। बंध दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-राग-बंध और द्वेष-बंध । जीव दो प्रकार से पाप कर्म बाँधते हैं, यथा-राग से और द्वेष से। जीव दो प्रकार से पाप कर्मों की उदीरणा करते हैं, आभ्युपगमिक (स्वेच्छा से) वेदना से, औपक्रमिक (कर्मोदय वश) वेदना से । इसी तरह दो प्रकार से जीव कर्मों का वेदन एवं निर्जरा करते हैं, यथा-आभ्युपगमिक और औपक्रमिक वेदना से। सूत्र - १०१ दो प्रकार से आत्मा शरीर का स्पर्श करके बाहर नीकलती है, यथा-देश से-शरीर के अमुक भाग अथवा अमुक अवयव का स्पर्श करके आत्मा बाहर नीकलती है । सर्व से-सम्पूर्ण शरीर का स्पर्श करके आत्मा बाहर नीकलती है । इसी तरह स्फुरण करके स्फोटन करके, संकोचन करके शरीर से अलग होकर आत्मा बाहर नीकलती है। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 23

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