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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक नगर आदि में मरना जहाँ मृत्यु संस्कार हो) और अनिर्झरिम (गिरि कन्दरादि में मरना जहाँ मृत्यु संस्कार न हो) । भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का है, निर्झरिम और अनिर्हारिम । सूत्र-१११
यह लोक क्या है ? जीव और अजीव ही यह लोक है । लोक में अनन्त क्या है ? जीव और अजीव, लोक में शाश्वत क्या है ? जीव और अजीव । सूत्र-११२
बोधि दो प्रकार की है, यथा-ज्ञान-बोधि और दर्शन-बोधि । बुद्ध दो प्रकार के हैं, यथा-ज्ञान-बुद्ध और दर्शनबुद्ध । इसी तरह मोह को समझना चाहिए । इसी तरह मूढ़ को समझना चाहिए। सूत्र - ११३
ज्ञानावरणीय कर्म दो प्रकार का है, देशज्ञानावरणीय और सर्व ज्ञानावरणीय । दर्शनावरणीय कर्म भी इस तरह दो प्रकार का है । वेदनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथा-सातावेदनीय और असातावेदनीय । मोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथा-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । आयुष्य कर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथाअद्धायु (कायस्थिति) और भवायु (भवस्थिति) । नाम कर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथा-शुभ नाम और अशुभ नाम | गोत्र कर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथा-उच्च गोत्र और नीच गोत्र । अन्तराय कर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथा-प्रत्युत्पन्न विनाशी (वर्तमान में होने वाले लाभ को नष्ट करने वाला) पिहितागामीपथ (भविष्य में होने वाले लाभ को रोकने वाला)। सूत्र-११४
मूर्छा दो प्रकार की कही गई है, यथा-प्रेम-प्रत्यया राग से होने वाली द्वेष-प्रत्यया द्वेष से होने वाली प्रेम - प्रत्यया मूर्छा दो प्रकार की कही गई है, माया और लोभ । द्वेष प्रत्यया मूर्छा दो प्रकार की कही गई है, यथा-क्रोध और मान। सूत्र - ११५
आराधना दो प्रकार की है। धार्मिक आराधना और केवलि आराधना । धार्मिक आराधना दो प्रकार की है। श्रुतधर्म आराधना और चारित्रधर्म आराधना । केवलि आराधना दो प्रकार की कही गई है, यथा-अन्तक्रिया और कल्पविमानोपपत्ति । यह आराधना श्रुतकेवली की होती है। सूत्र - ११६
दो तीर्थंकर नील-कमल के समान वर्ण वाले थे, यथा-मुनिसुव्रत और अरिष्टनेमि । दो तीर्थंकर प्रियंगु (वृक्षविशेष) के समान वर्ण वाले थे, यथा-श्री मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ, दो तीर्थंकर पद्म के समान गौर (लाल) वर्ण के थे, यथा-पद्मप्रभ और वासुपूज्य । दो तीर्थंकर चन्द्र के समान गोर वर्ण वाले थे, यथा-चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्त । सूत्र - ११७ सत्यप्रवाद पूर्व की दो वस्तुएं कही गई है। सूत्र - ११८
पूर्वभाद्रपद नक्षत्र के दो तारे कहे गए हैं। उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के दो तारे कहे गए हैं । इसी तरह पूर्व-फाल्गुन और उत्तरफाल्गुन के भी दो दो तारे कहे गए हैं। सूत्र - ११९ मनुष्य-क्षेत्र के अन्दर दो समुद्र हैं, यथा-लवण और कालोदधि समुद्र। सूत्र - १२०
काम भोगों का त्याग नहीं करने वाले दो चक्रवर्ती मरण-काल में मरकर नीचे सातवीं नरक-पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नामक नरकवास में नारकरूप से उत्पन्न हुए, उनके नाम ये हैं, यथा-सुभूम और ब्रह्मदत्त । सूत्र - १२१
असुरेन्द्रों को छोड़कर भवनवासी देवों को किंचित् न्यून दो पल्योपम की स्थिति कही गई है । सौधर्म कल्प में
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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