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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र - ३, 'स्थान'
सूत्र - १०२
दो प्रकार से आत्मा को केवलि-प्ररूपित धर्म सूनने के लिए मिलता है, यथा- कर्मों के क्षय से अथवा उपशम से । इसी प्रकार यावत्-दो कारणों से जीव को मनःपर्याय ज्ञान उत्पन्न होता है, यथा-(आवरणीय कर्म के) क्षय से अथवा उपशम से ।
सूत्र - १०३
स्थान / उद्देश / सूत्रांक
I
औपमिक काल दो प्रकार का है, पल्योपम और सागरोपम पल्योपम का स्वरूप क्या है ? पल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है ।
सूत्र - १०४
एक योजन विस्तार वाले पल्य में एक दिन के उगे हुए बाल निरन्तर एवं निविड़ रूप से हँस हँस कर भर दिए
जाए और
सूत्र - १०५
सौ सौ वर्ष में एक एक बाल नीकालने से जितने वर्षों में वह पल्य खाली हो जाए उतने वर्षों के काल को एक पल्योपम समझना चाहिए।
सूत्र - १०६
ऐसे दस क्रोड़ा क्रोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम होता है।
सूत्र - १०७
क्रोध दो प्रकार का कहा गया है, यथा- आत्मप्रतिष्ठित और परप्रतिष्ठित । अपने आप पर होने वाला या अपने द्वारा उत्पन्न किया हुआ क्रोध आत्म प्रतिष्ठित है। दूसरे पर होने वाला या उसके द्वारा उत्पन्न किया हुआ क्रोध पर प्रतिष्ठित है । इसी प्रकार नारक यावत्-वैमानिकों को उक्त दो प्रकार मान माया यावत्-मिथ्यादर्शनशल्य भी दो प्रकार का समझना चाहिए ।
सूत्र - १०८
संसार समापन्नक संसारी जीव दो प्रकार कहे गए हैं, यथा- त्रस और स्थावर, सर्व जीव दो प्रकार के कहे गए यथा- सिद्ध और असिद्ध सर्व जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सेन्द्रिय और अनिन्द्रिय। इस प्रकार सशरीरी और अशरीरी पर्यन्त निम्न गाथा से समझना चाहिए। यथा
सूत्र- १०९
सिद्ध, सेन्द्रिय, सकाय, सयोगी, सवेदी, सकषायी, सलेश्य, ज्ञानी, साकारोपयुक्त, आहारक, भाषक, चरम, सशरीरी ये और प्रत्येक का प्रतिपक्ष ऐसे दो-दो प्रकार समझना ।
सूत्र - ११०
श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के मरण सदा (उपादेय रूप से) नहीं कहे हैं, कीर्तित नहीं कहे हैं. व्यक्त नहीं कहे हैं, प्रशस्त नहीं कहे हैं और उनके आचरण की अनुमति नहीं दी है, यथा वलद् मरण (संयम से खेद पाकर मरना) वशार्त मरण (इन्द्रिय-विषयों के वश होकर मरना) । इसी तरह निदान मरण और तद्भव-मरण । पर्वत से गिरकर मरना और वृक्ष से गिरकर मरना । पानी में डूबकर या अग्नि में जलकर मरना । विष का भक्षण कर मरना और शस्त्र का प्रहार कर मरना ।
दो प्रकार के मरण यावत् नित्य अनुज्ञात नहीं हैं किन्तु कारण- विशेष होने पर निषिद्ध नहीं हैं, वे इस प्रकार हैं, यथा-वैहायस मरण (वृक्ष की शाखा वगैरह पर लटक कर और गृध्रपृष्ठ मरण (गौध आदि पक्षियों से शरीर नुचवा कर
मरना ) |
श्रमण भगवान महावीर ने दो मरण श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए सदा उपादेय रूप से वर्णित किए हैं- यावत्- उनके लिए अनुमति दी है, यथा पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान । पादपोपगमन दो प्रकार का है, यथा-निर्हारिम (ग्राम
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)" आगमसूत्र - हिन्द- अनुवाद”
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