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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक मनुष्यों में से या पंचेन्द्रय तिर्यंच जीवों में से उत्पन्न होता है । वही नैरयिक जीव नैरयिकत्व को छोड़ता हुआ मनुष्य अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यंच के रूप में उत्पन्न होता है । इसी तरह असुरकुमार असुरकुमारत्व को छोड़ता हुआ मनुष्य अथवा तिर्यंच के रूप में उत्पन्न होता है । इसी तरह सब देवों के लिए समझना चाहिए।
पृथ्वीकाय के जीव दो गति और दो आगति वाले कहे गए हैं, यथा-पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता हुआ पृथ्वीकाय में या नो-पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता है। वह पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायित्व को छोड़ता हुआ पृथ्वीकाय में अथवा नो-पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता है। इसी प्रकार मनुष्य-पर्यन्त समझना चाहिए। सूत्र-७९
नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए । नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । इसी तरह वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए।
नैरयिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-गतिसमापन्नक और अगतिसमापन्नक । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए । नैरयिक जीव दो प्रकार के हैं, प्रथमसमयोत्पन्न और अप्रथमसमयोत्पन्न । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-आहारक और अनाहारक । इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त समझ लेना चाहिए । नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-उच्छ्वासक और नोउच्छ्वासक । यों वैमानिको पर्यन्त समझना चाहिए।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सेन्द्रिय और अनीन्द्रिय । यों वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए । नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-पर्याप्त और अपर्याप्त । यों वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए।
नैरयिक दो प्रकार के हैं, संज्ञी और असंज्ञी । यों विकलेन्द्रियों को छोड़कर जो असंज्ञी अवस्था से नैरयिक आदि के रूप में उत्पन्न होते हैं वे असंज्ञी व्यन्तर तक ही उत्पन्न होते हैं । ज्योतिष्क और वैमानिक में नहीं इस विविक्षा से उनका यहाँ ग्रहण नहीं करके वाणव्यन्तर पर्यन्त कहा है । जिसने मनःपर्याप्ति पूर्ण की हो वह संज्ञी और पूर्ण न की हो वह असंज्ञी वाणव्यन्तर पर्यन्त सब पंचेन्द्रियों के विषय में जानना।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-भाषक और अभाषक । या एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष सब दण्डक में समझ लेना चाहिए।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि । इसी तरह एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष सब दण्डक में समझना चाहिए।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-परित्तसंसारिक और अनन्तसंसारिक । यों वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-संख्येयकाल की स्थिति वाले, असंख्येयकाल की स्थिति वाले । इस प्रकार एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर वाणव्यन्तर पर्यन्त पंचेन्द्रिय जीव समझने चाहिए । नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सुलभबोधिक और दुर्लभबोधिक । यों वैमानिक देव पर्यन्त जानना चाहिए।
नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं । यथा-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक । यों वैमानिक देव पर्यन्त जानना चाहिए । नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-चरम और अचरम । इस प्रकार वैमानिक देव पर्यन्त जानना चाहिए। सूत्र-८०
दो प्रकार से आत्मा अधोलोक को जानता और देखता है, यथा-वैक्रिय-समुद्धातरूप आत्मस्वभाव से अवधिज्ञानी आत्मा अधोलोक को जानता और देखता है और वैक्रिय-समुद्घात किये बिना ही आत्म-स्वभाव से आत्मा अधोलोक को जानता और देखता है । (तात्पर्य यह है कि) अवधिज्ञानी वैक्रिय-समुद्घात करके या वैक्रियसमुद्घात किये बिना ही अधोलोक को जानता है और देखता है । इसी तरह ऊर्ध्वलोक को जानता और देखता है ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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