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आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान'
स्थान/उद्देश/सूत्रांक इसमें जो यक्षावेश उन्माद है उसका सरलता से वेदन हो सकता है । तथा जो मोहनीय के उदय से होने वाला है उसका कठिनाई से वेदन होता है और उसे कठिनाई से ही दूर किया जा सकता है। सूत्र - ६९
दण्ड दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-अर्थदण्ड-और अनर्थ-दण्ड ।
नैरयिक जीवों के दो दण्ड कहे गए हैं, यथा-अर्थ-दण्ड और अनर्थ-दण्ड । इसी तरह विमानवासी देव पर्यन्त चौबीस दण्डक समझ लेना चाहिए। सूत्र-७०
दर्शन दो प्रकार का कहा गया है, यथा-सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन ।
सम्यग्दर्शन के दो भेद कहे गए हैं, यथा-निसर्ग सम्यग्दर्शन और अभिगम सम्यग्दर्शन । निसर्ग सम्यग्दर्शन के दो भेद कहे गए हैं, यथा-प्रतिपाति और अप्रतिपाति । अभिगम सम्यग्दर्शन के दो भेद कहे गए हैं, यथा-प्रतिपाति और अप्रतिपाति।
मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है, यथा-अभिग्रहिक मिथ्यादर्शन और अनभिग्रहिक मिथ्यादर्शन । अभिग्रहिक मिथ्यादर्शन दो प्रकार का कहा गया है, यथा-सपर्यवसित (सान्त) और अपर्यवसित (अनन्त), इसी प्रकार अनभिग्रहिक मिथ्यादर्शन के भी दो भेद जानना । सूत्र-७१
ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-प्रत्यक्ष और परोक्ष।
प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-केवलज्ञान और नो केवलज्ञान । केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-भवस्थ-केवलज्ञान और सिद्ध-केवलज्ञान । भवस्थ-केवलज्ञान दो प्रकार का है, यथा-सयोगी-भवस्थकेवलज्ञान, अयोगी-भवस्थ-केवलज्ञान।
सयोगी-भवस्थ-केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-प्रथम-समय-सयोगी-भवस्थ-केवलज्ञान, अप्रथम-समय-सयोगी-भवस्थ-केवलज्ञान । अचरम-समय-सयोगी-भवस्थ-केवलज्ञान । इसी प्रकार अयोगी-भवस्थ - केवलज्ञान के भी दो भेद जानने चाहिए।
सिद्ध-केवलज्ञान के दो भेद कहे गए हैं, यथा-अनन्तर-सिद्ध-केवलज्ञान और परम्पर-सिद्ध-केवलज्ञान । अनन्तरसिद्ध-केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-एकान्तर सिद्ध केवलज्ञान, अनेकान्तर सिद्ध केवलज्ञान। परम्परसिद्ध केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-एक परम्पर सिद्ध केवलज्ञान, अनेक परम्पर सिद्ध केवलज्ञान ।
नो केवलज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान ।
अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-भवप्रत्ययिक और क्षायोपशमिक । दो का अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक कहा गया है, यथा-देवताओं का और नैरयिकों का । दो का अवधिज्ञान क्षायोपशमिक कहा गया है, यथामनुष्यों का और तिर्यंच पंचेन्द्रियों का।
मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-ऋजुमति और विपुलमति । परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान।
आभिनिबोधिक ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित । श्रुतनिश्रित दो प्रकार का कहा गया है, यथा-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । अश्रुतनिश्रित के भी पूर्वोक्त दो भेद समझने चाहिए । श्रुतज्ञान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य । अंग-बाह्य के दो भेद कहे गए हैं, यथा-आवश्यक और आवश्यक-व्यतिरिक्त । आवश्यक-व्यतिरिक्त दो प्रकार का कहा गया है, यथा-कालिक और उत्कालिक । सूत्र - ७२
धर्म दो प्रकार का कहा गया है, यथा-श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म । श्रुत-धर्म दो प्रकार का कहा है, यथा-सूत्रश्रुत-धर्म और अर्थ-श्रुत-धर्म । चारित्र धर्म दो प्रकार का कहा है, यथा-अगार-चारित्र-धर्म और अनगार-चारित्र धर्म।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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