Book Title: Agam 03 Sthanang Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ आगम सूत्र ३, अंगसूत्र-३, 'स्थान' स्थान/उद्देश/सूत्रांक क्रिया दो प्रकार की कही गई है, यथा-आज्ञापनिकी और वैदारिणी । नैसृष्टिकी क्रिया की तरह इनके भी दो दो भेद जानने चाहिए। दो क्रियाएं कही गई हैं, यथा-अनाभोगप्रत्यया और अनवकांक्षप्रत्यया । अनाभोगप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है, यथा-अनायुक्त आदानता और अनायुक्त प्रमार्जनता । अनवकांक्षप्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है, यथा-आत्म-शरीर-अनवकांक्षा प्रत्यया । पर-शरीर-अनवकांक्षा प्रत्यया। दो क्रियाएं कही गई हैं, यथा-राग-प्रत्यया और द्वेष-प्रत्यया । राग-प्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है, यथा-माया-प्रत्यया और लोभ-प्रत्यया । द्वेष-प्रत्यया क्रिया दो प्रकार की कही गई है । यथा-क्रोध-प्रत्यया और मानप्रत्यया। सूत्र- ६१ गर्हा-पापकी निन्दा दो प्रकार की कही गई है, यथा-कुछ प्राणी केवल मन से ही पाप की निन्दा करते हैं, कुछ केवल वचन से ही पाप की निन्दा करते हैं । अथवा-गर्दा के दो भेद कहे गए हैं, यथा-कोई प्राणी दीर्घ काल पर्यन्त 'आजन्म गर्दा करता है, कोई प्राणी थोड़े काल पर्यन्त गर्दा करता है। सूत्र - ६२ प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है, यथा-कोई कोई प्राणी केवल मन से प्रत्याख्यान करते हैं, कोई कोई प्राणी केवल वचन से प्रत्याख्यान करते हैं । अथवा-प्रत्याख्यान के दो भेद कहे गए हैं, यथा-कोई दीर्घकाल पर्यन्त प्रत्याख्यान करते हैं, कोई अल्पकालीन प्रत्याख्यान करते हैं। सूत्र - ६३ दो गुणों से युक्त अनगार अनादि, अनन्त, दीर्घकालीन चार गति रूप भवाटवी को पार कर लेता है, यथा-ज्ञान और चारित्र से। सूत्र - ६४ दो स्थानों को जाने बिना और त्यागे बिना आत्मा को केवली-प्ररूपित धर्म सूनने के लिए नहीं मिलता, यथाआरम्भ और परिग्रह । दो स्थान जाने बिना और त्यागे बिना आत्मा शुद्ध सम्यक्त्व नहीं पाता है, यथा-आरम्भ और परिग्रह। दो स्थान जाने बिना और त्यागे बिना आत्मा गृहवास का त्याग कर और मुण्डित होकर शुद्ध प्रव्रज्या अंगीकार नहीं कर सकता है, यथा-आरम्भ और परिग्रह । इसी प्रकार शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता है, शुद्ध संयम से अपने आपको संयत नहीं कर सकता है, शुद्ध संवर से संवृत्त नहीं हो सकता है, सम्पूर्ण मतिज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता, सम्पूर्ण श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान और केवल ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता है। सूत्र - ६५ दो स्थानों को जानकर और त्यागकर आत्मा केवलि प्ररूपित धर्म सून सकता है-यावत् केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है, यथा-आरम्भ और परिग्रह। सूत्र - ६६ दो स्थानों से आत्मा केवलि प्ररूपित धर्म सून सकता है, यावत्-केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है । यथाश्रद्धापूर्वक धर्मकी उपादेयता सूनकर और समझकर । सूत्र - ६७ दो प्रकार का समय कहा गया है, यथा-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी। सूत्र-६८ उन्माद दो प्रकार का कहा गया है, यथा-यक्ष के प्रवेश से होने वाला, मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला। मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (स्थान)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 11

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 158