Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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प्रध्ययन १: टिप्पण ५२ अकृत, अनिर्मित और अवन्ध्य-नित्यवाद की सूचना देने वाले ये तीनों शब्द जैन और बौद्ध-दोनों की साहित्य परंपराओं में समान हैं । पंचमहाभूत और सात काय-ये दोनों भिन्न पक्ष हैं। इस भेद का कारण पकुधकात्यायन की दो विचार-शाखाएं हो सकती हैं और यह भी संभव है कि जैन और बौद्ध लेखकों को दो भिन्न अनुश्रुतियां उपलब्ध हुई हों।
आत्म-षष्ठवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है। इसकी संभावना की जा सकती है कि पकुधकात्यायन के कुछ अनुयायी केवल पंचमहाभूत वादी थे। वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते थे। उसके कुछ अनुयायी पांच भूतों के साथ-साथ आत्मा को भी स्वीकार करते थे। वह स्वयं आत्मा को स्वीकार करता था। सूत्रकार ने उसकी दोनों शाखाओं को एक ही प्रवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी आधार पर उक्त संभावना की जा सकती है।
पकुधकात्यायन भूतों की भांति आत्मा को भी कूटस्थनित्य मानता था। इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रतस्कंध (११२७,२८) में उपलब्ध है । आत्मषष्ठवादी मानते हैं
....... 'सत् का नाश नहीं होता, असत् का उत्पाद नहीं होता। इतना (पांच महाभूत या प्रकृति) ही जीवकाय है । इतना ही अस्तिकाय है। इतना ही समूचा लोक है । यही लोक का कारण है और यही सभी कार्यों में कारणरूप से व्याप्त होता है । अन्ततः तृणमात्र कार्य भी उन्हीं से होता है।' '(उक्त सिद्धांत को मानने वाला) स्वयं क्रय करता है, दूसरों से करवाता है, स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है, स्वयं पकाता है, दूसरों से पकवाता है और अन्ततः मनुष्य को भी बेचकर या मारकर कहता है-'इसमें भी दोष नहीं है'-ऐसा जानो।"
श्लोक १७-१८ ५२. श्लोक १७-१८:
बौद्ध पिटकों में पांच स्कंध प्रतिपादित हैं-रूपस्कंध, वेदनास्कंध, संज्ञास्कंध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कंध' । ये सब क्षणिक हैं । बौद्ध केवल विशेष को स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में सामान्य यथार्थ नहीं होता। अतीत का क्षण बीत जाता है और अनागत का क्षण प्राप्त नहीं होता, केवल वर्तमान का क्षण ही यथार्थ होता है। इन क्रमवर्ती क्षणों में उत्तरवर्ती क्षण वर्तमान क्षण से न अन्य होता है और न अनन्य होता है। वे प्रतीत्यसमुत्पाद को मानते हैं, इसलिए वर्तमान क्षण न सहेतुक होता है और न अहेतुक होता है।
चूणिकार के अनुसार बौद्ध आत्मा को पांच स्कंधों से भिन्न या अभिन्न-दोनों नहीं मानते ।' उस समय दो दृष्टियां प्रचलित थीं। कुछ दार्शनिक आत्मा को शरीर से भिन्न मानते थे और कुछ दार्शनिक आत्मा और शरीर को एक मानते थे। बौद्ध इन दोनों दृष्टियों से सहमत नहीं थे । आत्मा के विषय में उनका अभिमत था कि वही जीव है और वही शरीर है-ऐसा नहीं कहना चाहिए । जीव अन्य है और शरीर अन्य है-ऐसा भी नहीं कहना चाहिए।'
बौद्ध का दृष्टिकोण यह है कि स्कंधों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन होता है तो उच्छेदवाद प्राप्त हो जाता है। बुद्ध ने इस उच्छेदवादी दृष्टि का वर्जन किया है । स्कंधों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन नहीं होता है तो पुद्गल शाश्वत हो जाता है । वह निर्वाण जैसा बन जाता है। उक्त दोनों-उच्छेदवाद और शाश्वतवाद सम्मत नहीं हैं, इसलिए १. सूयगडो २।१२७,२८ : आयछट्ठा पुण एगे एवमाहु-सतो णस्थि विणासो, असतो पत्थि संभवो। एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अस्थिकाए, एताव ताव सव्वलोए, एतं मुहं लोगस्स करणयाए, अवि अंतसो तणमायमवि ।
से किणं किणावेमाणे, हणं घायमाणे, पयं पयावेमाणे, अवि अंतसो पुरिसमवि विक्किणित्ता घायइत्ता, एत्थं पि जाणाहि णस्थित्थ दोसो। २. दीघनिकाय १०।३।२० : पञ्चक्खन्धो - रूपक्खन्धो वेदनाक्खन्धो, साक्खन्धो, सङ्घारक्खंधो,
विणक्खन्धो। ३. चणि, पृष्ठ २६ : न चैतेष्वात्माऽन्तर्गतौ (भिन्नी) वा विद्यते, संवेद्यस्मरणप्रसङ्गादित्यादि तेषामुत्तरम् । ४. कथावत्थुपालि १११६१, ६२ : "तं जीवं तं सरीरं ति ? न हेवं वत्तव्वे ।
अझं जीवं अनं सरीरं ? न हेवं वत्तव्वे...॥ ५. वही, १११९४ : खन्धेसु भिज्जमानेसु, सो चे भिज्जति पुग्गलो ।
उच्छेदा भवति दिट्ठि, या बुद्धेन विवज्जिता ॥ खन्धेसु भिज्जमानेसु, नो चे भिज्जति पुग्गलो । पुग्गलो सस्सतो होति, निव्वानेन समसमो ति ॥
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