Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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टिप्पण: प्रध्ययन १४
श्लोक १:
१. प्रन्थ (परिग्रह) को (गंथं)
ग्रन्थ का अर्थ है-आत्मा को बांधने वाला तत्त्व ।'
चूर्णिकार के अनुसार ग्रंथ के दो प्रकार हैं- द्रव्य-ग्रन्थ और भाव-ग्रन्थ । द्रव्य-ग्रन्थ सावध होता है। भाव ग्रन्थ के दो प्रकार हैं
प्रशस्तभावग्रन्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र ।
अप्रशस्तभावग्रन्थ-प्राणातिपात आदि तथा मिथ्यात्व आदि । २. प्रवजित हो गुरुकुलवास में रहे (उढाय सुबंभचेरं)
उत्थाय का अर्थ है-सम्यग् अनुष्ठान को स्वीकार करने के लिए उठकर अर्थात् प्रबजित होकर ।' सुब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं१. सुचारित्र । २. नौ गुप्तियुक्त मैथुन-विरति । ३. गुरुकुलवास ।
सुत्रकृतांग २१५१ में 'बंभचेरं' की व्याख्या में चूर्णिकार ने आचार, आचरण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्य को एकार्थक माना है।' ३. विनय का (विणयं)
विनय के अनेक अर्थ हैं१. भाषा का शुद्ध प्रयोग। २. आचार । ३. विनय ।
यहां विनय का अर्थ है-आचार । शिष्य गुरु के प्रत्येक वचन को सम्यक् रूप से ग्रहण करे और उससे भावित होकर उसको १. वृत्ति, पत्र २४८ : प्रथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थः । २. चूणि, पृ० २२७,२२८ । ३. चूणि, पृ० २२८ : उत्थायेति प्रव्रज्य। ४. (क) चूणि, पृ० २२८ : सोमणं बंभचेरं वसेज्जा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुनं बंभचेरं वुच्चति, गुरुपादमूले जावज्जीवाए
जाव मभुज्जतविहारं ण पडिवज्जति ताव वसे । (ख) वृत्ति, पत्र २४८ । ५. सूयगडो २०५१, चूणि, पृ०४०३ : आचारोत्ति वाऽऽचरणंति वा संवरोत्ति वा संजमोत्ति वा बंभचेति वा एगहूँ। ६. (क) दसवेआलियं, ७१, जिनदासचूणि पृ० २४४ : जं भासमाणो धम्म णातिक्कमइ, एसो विणयो मण्णइ ।
(ख) वही, हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र २१३ : विनयं शुद्धप्रयोगम् । ७. दसवेआलियं, २१:धम्मस्स विणो मूलं ।
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