Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १४ : टिप्पण६७-१०० करे जिससे श्रोताओं को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो या सम्यग्दर्शन स्थिर होता जाए।' ६७. समाधि को (समाहि)
चूर्णिकार ने ज्ञान आदि समाधि तथा धर्म, मार्ग ओर चारित्र-तीनों का ग्रहण किया है ।
वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप समाधि अथवा चित्त का सम्यक् व्यवस्थापन ।'
श्लोक २६ : १८. सिद्धान्त को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करे (अल्सए)
अलूषक वह होता है जो सिद्धान्त और आचार को यथार्थरूप में प्रस्तुत करता है।' ६६. (अपरिणत को) रहस्य न बतार (पच्छण्णभासी)
जो सिद्धांत और आचार के विषय को प्रकट नहीं करता, प्रच्छन्न वचनों के द्वारा उसे छुपाता है, वह प्रच्छन्नभाषी होता है । अथवा जो अपरिणत श्रोता के सम्मुख ऐसे रहस्यों का उद्घाटन करता है, ऐसे अपवाद-सूत्रों का कथन करता है कि श्रोता असमंजस में पड़ जाता है, शंकाशील बन जाता है । वह भी प्रच्छन्नभाषी होता है।"
जो सिद्धान्त के सूक्ष्म रहस्य को अपरिणत शिष्य के सामने अभिव्यक्त करता है, वह रहस्य उस शिष्य के लिए दोषकारी होता है
'अप्रशान्तमतौ शास्त्रसद्भावप्रतिपादनम् ।
दोषायाभिनवोदीण, शमनीयमिव ज्वरे ॥' -अप्रशान्त चित्त वाले व्यक्ति के सम्मुख शास्त्र के रहस्य का प्रतिपादन करना उसके दोष के लिए ही होता है, जैसे तत्काल उत्पन्न ज्वर में दी गई औषधि ज्वर को बढाती है, घटाती नहीं। १००. सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे (णो सुत्तमत्थं च करेज्ज अण्णं)
मुनि सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे । इसका तात्पर्य यह है कि मुनि सूत्र--- आगम को सर्वथा इधर-उधर न करे। उसके एक अक्षर को भी न घटाए और न बढाए । वह जैसा और जितना है उसे वैसा और उतना ही रखे । अर्थ की विकल्पना में व्यक्ति स्वतंत्र होता है । वह अपनी मेधा और सूक्ष्म में जाने की योग्यता के अनुसार उसके अर्थ की अभिव्यक्ति करता है। वह अर्थाभिव्यक्ति स्वसिद्धान्त से विरुद्ध या अविरुद्ध भी हो सकती है। किन्तु मुनि जानबूझकर सम्यक् को असम्यक् और असम्यक् को सम्यक् न करे। १. (क) चूणि. पृ० २३६ : सम्यग्दष्टिः सपक्खे परपक्खे वा कथां कथयन् तत् कथयेद् जेण दरिसणं ण लूसिज्जइ, कुतीर्थप्रशंसाभिः
अपसिद्धान्तदेशनाभिर्वा न श्रोतुरपि दृष्टिं दूषयेत्, तथा तथा तु कथयेद् यथा यथाऽस्य सम्यग्दर्शनं भवति
स्थिरं वा भवति । (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : न दूषयेत, इदभुक्तं भवति---पुरुषविशेषं ज्ञात्वा तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरिहारेण यथा यथा
श्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीभवति । २. चूणि पृ० २३६ : ज्ञानाविसमाधि-धर्म-मार्ग चारित्रं जानीते । ३. वृत्ति, पत्र २५८ : समाधि- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यं सम्यकचित्तव्यवस्थानाख्यं वा । ४. चूर्णि, पृ० २३६ : अलूसकः सिद्धान्ताचारयो. प्रकटमेव कथयति । ५. चूणि, पृ० २३६ : न तु प्रच्छन्नवचनस्तमर्थ गोपयति, अपरिणतं वा श्रोतारं प्राप्य न प्रच्छन्नमुद्घाटयति, अपवादमित्यर्थः मा भूत्
"आमे घडे णिहितं । किञ्च-अणुकंपाए दिज्जति । ६. वृत्ति, पत्र २५८ : न प्रच्छन्नभावी भवेत्-सिद्धान्तार्थमविरुद्धमदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न गोपयेत्, यदि वा प्रच्छन्नं
वाऽथमपरिणताय न भाषेत, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायव संपद्यते, तथा चोक्तम्
अप्रशान्तमतौ ...। ७. चूणि, पृ० २३६ : न सूत्रमन्यत् प्रद्वेषेण करोति अन्यथा वा, जधा "रण्णो भत्तंसिणो जत्थं"। प्रश्नो नाम अर्थः, तमपि नान्यथा
कुर्याद, जधा- "आवंती के आवंती" (आयारो १/५/१) एके यावता तं लोगा विष्परामसंति । सूत्रं सर्वथैवान्यथा न कर्तव्यम् अर्थविकल्पस्तु स्वसिद्धान्तविरुद्धो अविरुद्धः स्यात् ।
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