Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो।
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अध्ययन १६ : टिप्पण ३२-३७ ३२. सुसंयत (सुसंजए)
सुसंयत का अर्थ है-निरर्थक काय-क्रिया से विरत ।' ३३. सु-समित (सुसमिए)
जिसकी प्रत्येक प्रवृत्ति सम्यक होती है, जो चलने, बोलने, भोजन आदि क्रिया करने में जागरूक होता है वह 'सू-समित' कहलाता है। ३४. सम्यक्-सामायिक (समभाव) वाला (सुसामाइए)
सामायिक का अर्थ है-समभाव ।
जिसका समभाव सध जाता है वह 'सु-सामायिक' कहलाता है।' ३५. जिसे आत्मप्रवाद (आठवां पूर्व-ग्रन्थ) प्राप्त है (आतप्पवादपत्ते)
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका अर्थ शब्द-परक किया है। जैसे
आत्मा का प्रवाद अर्थात् आत्मप्रवाद । आत्मा नित्य, अमूर्त, कर्ता, भोक्ता और उपयोग लक्षण वाला है। सभी जीवों का यही लक्षण है। ऐसा कोई एक आत्मा नहीं है जो सर्वव्यापी हो । आत्मा असंख्येय प्रदेश वाला है। उसमें संकोच-विकोच का सामर्थ्य है। वह प्रत्येक-शरीरी और साधारण-शरीरी के रूप में व्यवस्थित है। वह द्रव्य और पर्याय की दृष्टि से अनन्त धर्मात्मक है।
हमारी दृष्टि में आत्मप्रवाद एक ग्रन्थ है। इसमें आत्मा के संबंध में विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया था । यह चौदह पूर्वो में आठवां पूर्व है। ३६. (दुहओ वि सोयपलिछिण्णे)
जो द्रव्य से और भाव से-----दोनों प्रकार से इन्द्रियों का संयम करता है वह 'स्रोतपरिछिण्ण' कहलाता है।
कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता और आंखों से देखता हुआ भी नहीं देखता-यह द्रव्यतः स्रोतपरिछिण्ण है । जो इन्द्रिय विषयों के प्रति अमनस्क होता है, राग-द्वेष नहीं करता वह भावतः स्रोतपरिछिण्ण है।' ३७. धर्म का अर्थी (धम्मट्टी)
जो समस्त क्रियाएं केवल धर्म के लिए ही करता है, वह धर्मार्थी है । वह धर्म के लिए ही प्रयत्न करता है, बोलता है, खाता है, अनुष्ठान करता है। उसके लिए और कोई प्रयोजन शेष नहीं रहता।' १. वृत्ति, पत्र २७४ : संयत:-कूर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककायक्रियारहितः सुसंयतः । २. वृत्ति, पत्र २७४ : सुष्ठ पञ्चभिः समितिभिः सम्यगितः-प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ सुसमित. । ३. वृत्ति, पत्र २७४ : सुष्ठु समभावतया सामायिक समशत्रुमित्रमावो यस्य स सुसामायिकः । ४. (क) चूणि, पृ० २४८ : अप्पणो पवादो अत्तप्पवातो, यथा-अस्त्यात्मा नित्यः अमूर्तः कर्ता भोक्ता उपयोगलक्षणः, य एवमादि
आतप्पवादो सो य पत्तेयं जीवेसु अस्थि त्ति, न एक एव जीवः सर्वव्यापी। (ख) वत्ति, पत्र २४८ : तयाऽऽत्मन:-उपयोगलक्षणस्य जीवस्यासंख्येयप्रदेशात्मकस्य संकोचविकाशमाजः स्वकृतफलभुजा प्रत्येकसाधारणशरीरतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनन्तधर्मात्मकस्य वा वाद आत्मवादस्तं प्राप्त आत्मवावप्राप्तः सम्यग्यथावस्थितात्मस्वतत्त्ववेदीत्यर्थः। ५. (क) चूणि, पृ० २४८ : दुहतो त्ति दब्बतो भावतो य, सोताणि इंदियाणि, दन्वतो संकुचितपाणिपादो। लास्सुत्तिकारणाणि
'सुणमाणो वि ण सुणति पेच्छमाणो वि ण पेच्छति । भावतो इंदियात्थेसु राग-द्दोसं ण गच्छति ॥'
अतो वुहतो वि सोतपलिच्छण्णे । (ख) वृत्ति, पत्र २७४ । ६. चूणि, पृ० २४८ : धम्मट्ठी णाम धर्ममेव चेष्टते भाषते वा भुंक्त सेवते, नान्यत् प्रयोजनम् ।
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