Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 691
________________ (८।१३) सूयगडो १ ६५४ परिशिष्ट ३ : सूक्त और सुभाषित जं जारिसं पुटवमकासि कम्म, तमेव आगच्छह संपराए । (२५०) भासमाणो ण मासेज्जा। (।२५) प्राणी जैसा कर्म करता है, वैसा ही परलोक में फल पाता बोलते हुए भी न बोलते से रहो। जोय वम्फेज्ज मम्मयं । (हा२५) दुवखेण पुठे धुयमाइएज्जा। (२९) मर्मवेधी वचन मत बोलो। दुःख से स्पृष्ट होने पर शांत रहे। माइट्ठाणं विवज्जेज्जा। (२५) पमा कम्ममाहंसु, अप्पमायं तहावरं। (फा३) बोलने में माया का वर्जन करो। तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म mata वियागरे। (६।२५) कहा है। सोच-समझ कर बोलो। वेराई कुवती वेरी, ततो वेरेहि रज्जती। (८७) कृणं तं ण वत्तव्वं । (३।२६) वैरी वर करता है और फिर वैर में ही अनुरक्त हो जाता हिंसाकारी वचन मत बोलो। णिवाणं संधए मुणि। (२३) अप्पणो गिद्धिमुदाहरे। (८।१३) निर्वाण की सतत साधना करो। मनुष्य अपनी गृद्धि को छोड़े। आदीणवित्ती वि करेति पावं । (१०६) आरियं उवसंपज्जे, सम्वधम्ममकोवियं । जो दोनवृत्ति वाला होता है, वह पाप करता है। मनुष्य सब धर्मों में निर्मल आर्यधर्म को स्वीकार करे। सव्वं जगं तू समयाणपेही। (१०७) जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावेहि अप्पाणं, अज्झप्पेण समाहरे ॥ (८1९६) समूचे प्राणी जगत् को समता की दृष्टि से देखो। जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता वेराणगिद्धे णिचयं करेति । (१०.६) है, इसी प्रकार पंडित पुरुष अपनी आत्मा को पापों से बचा जो संचय करता है, वह जन्मान्तरानुयायी वैर में गृद्ध अध्यात्म में ले जाए। होता है। अवमाणिते परेणं तु, ण सिलोगं वयंति ते। (८२५) (८।२५) आयं ण कुज्जा इह जीवितट्ठी। (१०.१०) महान् वे होते हैं जो दूसरों के द्वारा अपमानित होने पर मनुष्य इस जीवन का अर्थी होकर पदार्थों का अर्जन, अपनी श्लाघा नहीं करते-अपने कुल-गौरव का परिचय नहीं संचय न करे। देते। एगत्तमेवं अभिपत्थएज्जा। (१०।१२) तितिक्खं परमं गच्चा। (चा२७) __ तितिक्षा मोक्ष का परम साधन है । एकत्व (अकेलेपन) की अभ्यर्थना करो। परिग्गहे णिविट्ठाणं, वेरं तेसि पवड्डई । (१०।१२) जो परिग्रह के अर्जन, संरक्षण और भोग में रत हैं, उनका एकत्व ही मोक्ष है। वैर बढ़ता है। आरंभसत्ता गढिया य लोए, आरंभसंमिया कामा, ण ते दुक्ख विमोयगा। (३) धम्म ण जाणंति विमोक्खहे। (१०.१६) काम आरंभ-प्रवृत्ति से पुष्ट होते हैं। वे दुःख का जो आरंभ-प्रवृत्ति में आसक्त और लोक में गृद्ध होते विमोचन नहीं करते। हैं, वे समाधि-धर्म को नहीं जानते । कम्मी कम्मेहि किच्चती। (४) पवड्ढतो वेरमसंजयस्स ॥ (१०।१७) जो धन के लिए कर्म का बंधन करता है, वह उन्हीं कर्मों असंयमी व्यक्ति का वैर बढ़ता जाता है। से छिन्न होता है। अहो य रामओ परितप्पमाणे, अट्टे सुमूढे अजरामरे ध्व । पलिउंचणं च भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि य । (१०।१८) धुतादाणाणि लोगंसि, तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ (११) जो विषयों से पीडित और मोह से मूच्छित होकर अजर माया, लोभ, क्रोध, अभिमान-ये सब कर्म के आयतन अमर की भांति आचरण करता है वह दिन-रात संतप्त रहता हैं। इन्हें विद्वान् त्यागे। (३) एतं पमोक्खे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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