Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
६०८
अध्ययन १५ : टिप्पण ३६-४०
श्लोक १५: ३६. अन्त का (अंताणि)
चूर्णिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. निवास के लिए आराम, उद्यान आदि । २. भोजन के लिए अन्त-प्रान्त आहार । ३. कर्म और आस्रवों का अन्त अर्थात् उनमें वर्तन न करना।
इसका तात्पर्य यह है कि जो मुनि विषय-कषाय और तृष्णा के परिकर्म के लिए आराम-उद्यान आदि में निवास करता है, अन्त-प्रान्त आहार लेता है वह 'अन्त' का सेवन करने वाला होता है।' ३७. इसलिए वे धर्म के शिखर पर पहुंच जाते हैं (तेण अंतकरा इह)
इसलिए वे (धीर पुरुष) धर्म के शिखर पर पहुंच जाते हैं-यह चूर्णिकार के अनुसार व्याख्या है।'
वृत्तिकार ने इसका सर्वथा भिन्न अर्थ किया है-अन्त-प्रान्त के अभ्यास से वे (धीर पुरुष) यहां संसार का या उसके कारणभूत कर्म का अन्त कर देते हैं।'
चूर्णिकार का अर्थ ही उचित प्रतीत होता है। ३८. मानव जीवन में (माणुस्सए ठाणे)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मनुष्य जीवन में किया है । उन्होंने वैकल्पिक रूप में 'स्थान' शब्द से कर्मभूमि, गर्भव्युत्क्रान्ति और संख्येय वर्ष का आयुष्य ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने 'णरा' की व्याख्या में कर्मभूमि आदि का ग्रहण किया है।'
श्लोक १६ : ३६. मुक्त होते हैं (णिट्ठितट्ठा)
जिनके ज्ञान आदि अर्थ पूर्ण हो जाते हैं, वे निष्ठितार्थ कहलाते हैं । इसका तात्पर्य है-वे मनुष्य जो मुक्त हो गए हैं, कृतकृत्य हो गए हैं।' ४०. अनुत्तर देवलोकों में (उत्तरोए)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों में तथा अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होना।
२. इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिशक आदि उत्तरीय-ऊंचे स्थानों में उत्पन्न होना। १. चूर्णि, पृ० २४२ : अंताई आरामोद्यानानि वसत्यर्थम्, अन्तप्रान्त-भूतानि आहारार्थम् कर्माश्रवांश्च न सेवन्ते, न तेषु वर्तन्ते इत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र २६६, २६७ : 'अन्तान्'--पर्यन्तान विषयकषायातृष्णायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वाऽन्तप्रान्तादीनि । ३. चूर्णि, पृ० २४२ : तेनैव प्रान्तसेवित्वेनाऽऽयतचारित्रकर्माऽन्तकरा भवन्ति इह धर्मे। ४. वृत्ति, पत्र २६७ : तेन चान्तप्रान्ताभ्यसनेन 'अन्तकरा:'-संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणा भयकारिणो भवन्ति । ५. चूणि, पृ० २४२ : इह माणुस्सए ठाणे मनुष्यभवे, अथवा स्थाने ग्रहणात् कर्मभूमिः गम्भवक्कंतियसंखेज्जवासाउयत्तं च गृह्यते । ६. वृत्ति, पत्र २६७ : 'नराः' मनुष्या कर्मभूमिगर्भव्युत्क्रान्तिजसंख्येयवर्षायुषः । ७. (क) चूणि पृ० २४२ : णिद्वितठ्ठा निष्ठानं च येषां ज्ञानादयोऽर्थाः गतास्ते भवन्ति णिट्टितद्वा, सिड्यन्त इति ।
(ख) वृत्ति, पत्र २६७ : निष्ठिताः -कृतकृत्या भवन्ति । ८. चूणि, पृ० २४२ : उत्तरीयं ति अणुत्तरोववादिया (वि) कप्पेसु वा उववज्जमाणा इन्द्र-सामानिक-त्रास्त्रिशकाविषूत्तरीकेषु स्थानेष
पपचन्ते, नाभियोग्या इत्यना।
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