Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 656
________________ सोलसमं अज्झयणं : सोलहवां अध्ययन गाहा : गाथा मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद १.अहाह भगवं एवं से दंते दविए वोसटकाए ति बच्चे-माहणे त्ति वा, समणे ति वा, भिक्खू त्ति वा, णिग्गंथे त्ति वा॥ अथाह भगवान्-एवं स दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः इति वाच्यः-माहन इति वा, श्रमण इति वा, भिक्ष इति वा, निर्ग्रन्थ इति वा। १. भगवान् ने कहा-'जो ऐसा (पूर्ववर्ती अध्ययनों में वर्णित गुण-संपन्न मुनि) उपशान्त', शुद्ध चैतन्यवान्' और देह का विसर्जन करने वाला है, वह इन शब्दों से वाच्य होता है-माहन, श्रमण, भिक्षु और निग्रन्थ । २.पडिआह-भंते ! कहं दंते दविए वोसट्टकाए ति। वच्चे-माहणे तिवा? समणे त्ति वा ? भिक्खू त्ति वा? णिग्गंथे त्ति वा ? तं णो बूहि महामुणी! प्रत्याह-भदन्त ! कथं दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः इति वाच्यः-माहन इति वा? श्रमण इति वा ? भिक्षः इति वा, निर्ग्रन्थ इति वा ? तद् नो ब्रूहि महामुने ! २. शिष्य ने पूछा -'भंते ! उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाले को माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ क्यों कहना चाहिए? महामुनि !' इसे हमें बतलाएं।' ३. इतिविरतसव्वपावकम्मे इतिविरतसर्वपापकर्मा प्रेयो- पेज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण- दोष-कलह-अभ्याख्यान-पैशुन्यपेसुण्ण-परपरिवाद- अरति- परपरिवाद-अरतिरति-मायारति- मायामोस - मिच्छा- मषा-मिथ्यादर्शनशल्यविरतः दसणसल्लविरते समिए समितः सहितः सदा यतः, नो सहिए सया जए, णो कुज्झे । ऋध्येत् नो मानी 'माहन' इति णो माणी 'माहणे' त्ति वच्चे ॥ वाच्यः । ३. जो सब पाप-कर्मों से विरत होता है"-प्रेय', द्वेष, कलह, आरोप', चुगली, पर-निन्दा", अरति-रति", मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य" से विरत होता है", जो सम्यग् प्रवृत्त", ज्ञान आदि से संपन्न" और सदा संयत" होता है, जो क्रोध नहीं करता, अभिमानी नहीं होता" वह 'माहन' कहलाता है । ४. एत्थ वि समणे-अणिस्सिए अत्रापि श्रमणः-अनिश्रितः अणिदाणे आदाणं च अति- अनिदानः आदानञ्च अतिपातं वायं च मुसावायं च बहिद्धं च मषावादं च बहिस्तात् क्रोधं च कोहं च माणं च मायं च च लोभं च मानं च मायां च लोहं च पेज्जं च दोसंच- प्रेयश्च दोषं च-इत्येव यतो इच्चेव जतो-जतो आदाणाओ यतः आदानात् आत्मनः प्रदोषअप्पणो पहोसहेऊ ततो-ततो हेतुः ततः ततः आदानात् पूर्व आदाणाओ पुव्वं पडिविरते प्रतिविरतः स्यात् दान्तः द्रव्यः सिआ दंते दविए वोसट्टकाए व्युत्सृष्टकायः 'श्रमण' इति 'समणे ति वच्चे॥ वाच्यः। ४. यहां भी श्रमण---जो अप्रतिबद्ध" होता है, जो अनिदान" (आशंसा-मुक्त) होता है, जो आदान" प्राणातिपात, मृषावाद, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय और द्वेष—इस प्रकार जो-जो आदान आत्मा के लिए प्रदोष का हेतु बनता है, उस-उस आदान से पहले ही प्रतिविरत होता है, वह उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला 'श्रमण' कहलाता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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