Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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अ० १६ : गाथा : सूत्र ५-६
सूयगडो १ ५. एत्थ वि भिक्ख-अणुण्णते
णावणते दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्टिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई 'भिक्खू' ति वच्चे॥
अत्रापि भिक्षः-अनुन्नतः नावनतः दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः संविधूय विरूपरूपान् परीषहोपसर्गान् अध्यात्म-योगशुद्धादानः उपस्थितः स्थितात्मा संख्याक: परदत्तभोजो 'भिक्षु'रिति वाच्यः ।
५. यहां भी भिक्षु-जो गर्वोन्नत तथा हीन-भावना से ग्रस्त नहीं होता, जो उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान्
और देह का विसर्जन करने वाला है, जो नाना प्रकार के परीषह और उपसर्गों को" पराजित कर" अध्यात्म-योग के द्वारा शुद्ध स्वरूप को उपलब्ध होता है, जो संयम के प्रति उपस्थित, स्थितात्मा", विवेक-संपन्न" और परदत्तभोजी" होता है, वह 'भिक्षु' कहलाता है।
६.एत्थ वि णिग्गंथे-एगे अत्रापि निर्ग्रन्थः -एकः एगविदू बुद्धे संछिण्णसोए एकविद् बुद्धः संछिन्नस्रोताः सुसंजए सुसमिए सुसामाइए। सुसंयतः सुसमितः सुसामायिकः आतप्पवादपत्ते विऊ दुहओ आत्मप्रवादप्राप्त: विद्वान् वि सोयपलिछिण्णे णो पूया- द्वितोऽपि परिच्छिन्नस्रोता: नो सक्कारलाभट्टीधम्मट्टीधम्म- पूजासत्कारलाभार्थी धर्मार्थी विऊ णियागपडिवण्णे समियं धर्मविद् नियागप्रतिपन्नः चरे दंते दविए वोसट्टकाए सम्यक्चरः दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्ट'णिग्गंथे' त्ति वच्चे। से एक- कायः 'निर्ग्रन्थ' इति वाच्यः । मेव जाणह जमहं तत् एवमेव जानीत यदहं भयंतारो॥
भदन्तात् ।
६. यहां भी निर्ग्रन्थ-जो अकेला होता है, एकत्व भावना को जानता है", बुद्ध (तत्त्वज्ञ) है, जिसके स्रोत छिन्न हो चुके हैं", जो सु-संयत, सुसमित" और सम्यक् सामाधिक (समभाव) वाला है, जिसे आत्मप्रवाद (आठवां पूर्व-ग्रन्थ) प्राप्त है", जो विद्वान् है, जो इन्द्रियों का बाह्य और आंतरिकदोनों प्रकार से संयम करने वाला है", जो पूजासत्कार और लाभ का अर्थी नहीं होता, जो केवल धर्म का अर्थी", धर्म का विद्वान्", मोक्ष-मार्ग के लिए समर्पित", सम्यग् चर्या करने वाला", उपशान्त, शुद्ध चैतन्यवान् और देह का विसर्जन करने वाला है, वह 'निर्ग्रन्थ' कहलाता है । इसे ऐसे ही जानो जो मैंने भदन्त से सुना है।
-ऐसा मैं कहता हूं।
-त्ति बेमि ॥
-इति ब्रवीमि ।।
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