Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 642
________________ सूयगो । ६०५ मध्ययन १५ टिप्पण २५-२७ आचारांग (६/३०) में 'अनुवसु' का प्रयोग हुआ है। वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने वसु का मूल अर्थ वीतराग और 'अनुवसु' का अर्थ सराग-छद्मस्थ किया है। उन्होंने वैकल्पिक रूप से वसु और अनुवसु के तीन-तीन अर्थ किए हैं' वसु-वीतराग, जिन, संयत । अनुवसु-छद्मस्थ, स्थविर, श्रावक । २५. योग्यता के अनुसार (पुढो) इसके तीन अर्थ हैं-विस्तार से, पृथक्-पृथक् अथवा पुनः पुनः ।' २६. अनुशासन (अणुसासणं) अपने सद्-असद् विवेक से प्राणियों को सन्मार्ग में अवतरित करने के उपाय को अनुशासन कहते हैं।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ केवल कथन किया है।' २७. पूजा का आशय नहीं रखते (पूयणासते) इसमें दो शब्द हैं-पूजा+अनाशय । छन्द की दृष्टि से 'यकार' का ह्रस्व प्रयोग किया गया है। इसमें द्विपदसंधि भी हो सकती है-पूया+अणासते। इसका अर्थ है-पूजा का आशय न रखने वाला। वृत्तिकार ने इसको 'पूजनास्वादक' मानकर व्याख्या की है। चूर्णिकार ने 'पूयं णासंसति' पाठ मानकर इसका अर्थ-पूजा की आशंसा-प्रार्थना न करना—किया है।' प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों का अर्थ चूर्णिकार और वृत्तिकार ने सर्वथा भिन्न प्रकार से किया है। चूर्णिकार के अनुसार संयमी पुरुष प्राणियों को धर्म की ओर अग्रसर करने के लिए विस्तार से या बार-बार अनुशासन करते हैं, किन्तु पूजा की वांछा नहीं करते।' वृत्तिकार के अनुसार संयमी पुरुष प्राणियों को सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने के लिए पृथक् पृथक् रूप से अनुशासन करते हैं । वे देवादिकृत पूजा-अतिशयों का उपभोग करते हैं।' यथार्थ में चूर्णिकार का अर्थ ही उचित लगता है । यद्यपि वृत्तिकार ने अपनी भावना को स्पष्ट करने के लिए स्वयं एक प्रश्न उपस्थित किया है कि देवादिकृत समवसरण आदि तीर्थंकरों के लिए ही बनाए जाते हैं । वे आधाकर्म दोषयुक्त होते हैं । उनका उपभोग १. आचारांग वृत्ति, पत्र २१७ : वसु-द्रव्यं सद्भूतः कषायकालिकाविमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः, तद्विपर्ययेणानुवसु, सराग इत्यर्थः, यदि वा वसुः-साधुः अनुवसुः-श्रावकः, तदुक्तम् वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽयवा । सरागो ह्यऽनवसुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥ २. (क) चूर्णि, पृ० २४१ । (ख) वृत्ति, पत्र २६५ । ३. वृत्ति, पत्र २६५ : अनुशास्यन्ते-सन्मार्गेऽवतायन्ते सदसद्विवेकतः प्राणिनो येन तवनुशासनम् । ४. चूणि, पृ० २४१ : अनुशासन्तो कधेतो। ५. वृत्ति, पत्र २६५ : पूजन-देवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति --- उपमुक्त इति पूजनास्वादकः । ६. चूर्णि, पृ० २४१ : पूर्व णाऽसंसति ण पत्थेति । ७. चूर्णि, पृ० २४१। ८. वृत्ति, पत्र २६५। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700