Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 639
________________ सूयगडो १ अध्ययन १५: टिप्पण ११-१४ विशेष विवरण के लिए देखें१. उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृष्ठ १३७-१४२ । २. उत्तरज्झयणाणि, भाग २ पृष्ठ २६७-२६८। चूर्णिकार ने भावना और योग को भिन्न-भिन्न मानकर जिसकी आत्मा भावना और योग से विशुद्ध है उसे 'भावनायोगशुद्धात्मा' माना है । अथवा भावना और योग में जिसकी आत्मा विशुद्ध है, वह भावनायोगशुद्धात्मा है।' वृत्तिकार ने इसे एक शब्द मानकर व्याख्या की है।' जैन-योग की अनेक शाखाएं हैं -- दर्शन-योग, ज्ञान-योग, चारित्र-योग, तपो-योग, स्वाध्याय-योग, ध्यान-योग, भावना-योग, स्थान-योग, गमन-योग, और आतापना-योग । ११. जल में नौका को तरह कहा गया है (जले णावा व आहिया) जैसे जल में चलती हुई या ठहरी हुई नौका नहीं डूबती वैसे ही जिसकी आत्मा भावना-योग से विशुद्ध है वह भी संसार में नहीं डूबता। वह संसार में रहता हुआ भी संसार में लिप्त नहीं होता, नौका की तरह जल से ऊपर रहता है।' १२. (णावा व ..........तिउट्टति) नौका में नाविक है, अनुकूल पवन बह रहा है, किसी भी प्रकार को बाधा नहीं है, वह नौका सहजता से तीर को प्राप्त कर लेती है। वैसे ही विशुद्ध चारित्र वाला यह जीवरूपी पोत, आगमरूपी कर्णधार से अधिष्ठित होकर, तपरूपी पवन से प्रेरित होता हआ, सर्व दुःखात्मक संसार से पार चला जाता है और समस्त द्वन्द्वों से रहित मोक्षरूपी तीर को पा लेता है। श्लोक ६: १३. पाप कर्म टूट जाते हैं (तुटेंति पावकम्माणि) __वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जिस मुनि ने अपने आस्रवद्वारों को बंद कर दिया है, जो विकृष्ट तप करने में संलग्न है, उसके पूर्वसंचित कर्म टूट जाते हैं और जो नए कर्म नहीं करता, उसके संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।' श्लोक ७: १४. कर्म का "विज्ञाता (या द्रष्टा) है (कम्मं णाम विजाणतो) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-जो कर्म और कर्म-निर्जरण के उपायों को जानता है।' वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं१. नाम का अर्थ है 'नमन' अर्थात् जो कर्म के नाम-निर्जरण को जानता है। २. जो कर्म और नाम को जानता है । अर्थात् जो कर्म के अवान्तर भेदों-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश को सम्यग् जानता है। १.णि पृ० २४० : मावनाभियोगेन शुद्ध आत्मा यस्य स भवति मावणाजोगसुद्धप्पा । अथवा भावनासु योगेषु च यस्य शुद्धारमा । २. वृत्ति, पत्र २६३ : भावनाभिर्योगः सम्यकप्रणिधानलक्षणो भावनायोगस्तेन शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मा यस्य स तथा। ३. (क) चूणि, पृ० २४० : यथा जलेऽन्तनोर्गच्छन्ती तिष्ठन्ती वा न निमज्जति स एवं। (ख) वृत्ति, पत्र २६३ : स च भावनायोगशुद्धात्मा सन् परित्यक्तसंसारस्वभावो नौरिव जलोपर्यवतिष्ठते, संसारोदन्वत इति; नौरिव-यथा जलेऽनिमज्जनत्वेन प्रख्याता एवमसावपि संसारोवन्वति न निमज्जतीति । ४. (क) चूणि, पृ० २४० । (ख) वृत्ति, पत्र २६३ । ५ वृत्ति, पत्र २६३ : निरुद्धाश्रवद्वारस्य विकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि युट्यन्ति निवर्तन्ते वा नवं च कर्माकुर्वतोशेषकर्म क्षयो भवतीति । ६. चूणिः पृ० २४० : विजानतो हि कर्म कर्मनिर्जरणोपायांश्च कृतो बन्धः स्यात् ? एवं कर्म तत्फलं संवरं विर्जरोपायांश्च । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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