Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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की पूर्ण समानता वीतरागी में घटित होती है। वीतरागी उत्कृष्ट संयमी होते हैं। वे कभी असत्य नहीं बोलते
'वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या नवते वचः । यस्मात् तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ॥' श्लोक ४ :
६. विरोध न करे (ण विरुज्भेज्जा)
विरोध के दो अर्थ हैं— विग्रह, उपघात ।
७. संयमी का (बुसीमतो )
८. धर्म में (अहिंस)
चूर्णिकार ने वृषीमान् का अर्थ तीर्थंकर या साधु' तथा वृत्तिकार ने तीर्थंकर और संयम किया है ।"
देखें - ८१२० का टिप्पण |
चूर्णिकार ने इसे 'धर्म' के साथ और वृत्तिकार ने प्रधानरूप से जगत् के साथ और गौण रूप से धर्म के साथ जोड़ा है ।" ६. जीवित भावना (जीवियभावणा)
इसके दो अर्थ है
१. यावज्जीवन तक अपनी आत्मा को पचीस या बारह भावनाओं से भावित करना ।
२. जीव को समाधान देने वाली भावनाओं की भावना करना ।
श्लोक ४ :
१०. जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध है ( भावणाजोग सुद्धप्पा )
जिन चेष्टाओं और संकल्पों के द्वारा मानसिक विचारों को भावित या वासित किया जाता है, उन्हें 'भावना' कहा जाता है ।" भावनाएं असंख्य हैं । फिर भी उनके अनेक वर्गीकरण प्राप्त हैं-पांच महाव्रत की पचीस भावनाएं, अनित्य आदि बारह भावनाएं, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ आदि चार भावनाएं, आदि आदि ।
भावनाओं का महत्त्व बतलाते हुए योगशास्त्र ४१२२ में कहा है
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अध्ययन १५ : टिप्पण ६-१०
१. णि, पृ० २३९ : सच्चे - अवितथो । संयमो वा सत्यः ।
आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः । त्रुटितामपि संघते, विशुद्धध्यानसन्ततिम् ॥
— जो साधक भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है वह विच्छिन्न विशुद्ध ध्यान के क्रम को पुनः सांध लेता है ।
तपः संयमज्ञान सत्येन वा । कस्मात् सत्यं संयमः ? येन
यथावादिनः तथाकारिणो भवन्ति यथोद्दिष्टं चास्य सत्यं भवति । विरोधो विग्रहः तदुपधात वा
२. वृषि, ०२३६ ३. वही, पृ० २३९ :
वसीमांश्च भगवान् साधुर्वा बुसीमान् ।
४. वृति पत्र २६३ सीमति सीकृतोऽयं सत्यमवतो बेति ।
५. (क) भूमि, १० २३९
(ख) वृति पत्र २६३ ।
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६. चूर्णि ० २३९ आजीवितादात्मानं भावयति पथवोसाए भावगाहि बारसह वा
७. वृत्ति, पत्र २६३ : जीवसमाधानकारिणीः सत्संयमाङ्गतया मोक्षकारिणी भावयेदिति । ८.पासनारि वाजिद जीए वो विमुचेद्वाए सा भावपत्ति युण्यद ।
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