Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
८. मिनती महावीरे
जस्स णत्थि पुरेकडं । वाऊ द जालम पिया लोगंसि इथिओ |
६. इरिथम जेण सेवंति आदिमोक्खा हु ते जणा । ते जगा बंधणुम्मुक्का णावकखंति जीवितं ॥ १०. जीवितं पिटुओकिया अंतं पावंति कम्मुणं । कम्मुणा संमुहीभूता
जे
सासति ॥
११. अणुसासणं पुढो पाणी वसुमं पुयणासते । अणासते जते दंते
दढे
आरतमेहुणे ॥
१२. णीवारे व ण लीएज्जा छिण्णसोते अणाइले । अणाइले सदा दंते संधि पत्ते अणेलिसं ॥
१२. अपेलिसस्स
येणे ण विरुज्ज्ज केणइ । मणसा वयसा चैव कायसा चेव चक्खुमं ॥ १४. से
चलू मनुस्साणं जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहती चक्कं अंतेग लोहति ॥
१५. अंताणि धीरा सेवंति
तेण अंतकरा इहं । इह माणुस्सए ठाणे धम्ममाराहि णरा
१६. ट्टि व देवा व उत्तरी त्ति मे सुतं । सुतं च मेतमेणेसि अमणुस्सेसु णो तहा ॥
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न प्रियते
महावीरः,
।
यस्य नास्ति पुराकृतम् । वायुरिव ज्वालामत्येति, प्रियाः लोके स्त्रियः ॥
।
स्त्रियः ये न सेवते आदिमोक्षाः खलु ते जनाः । ते जनाः बन्धनोन्मुक्ताः, नावकांक्षन्ति जीवितम् ॥
जीवितं पृष्ठतः कृत्वा, अन्तं प्राप्नुवन्ति कर्मणाम् । कर्मणा सम्मुखीभूता, ये
मार्गमनुशासति ।।
अनुशासनं पृथक् प्राणिषु,
वसुमान्
पूजाऽनाशयः ।
अनाशयः यतो दान्तः,
दृढः
आरतमैथुन: ।।
नोवारे वा न लीवेत, छिन्नस्रोता अनाविलः । अनाविलः सदा दान्तः, सन्धि प्राप्तः अनीदृशम् ॥
अनीदृशस्य
क्षेत्रज्ञः, केनचित् । चैव,
न
विरुध्येत
मनसा वचसा
कायेन चैव चैव चक्षुष्मान् ॥
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स खलु चक्षुर्मनुष्याणां, यः कांक्षायाश्च अन्तकः । अन्तेन क्षुरो चक्रं अन्तेन
अन्तान् धीराः तेन अन्तकरा इह मानुष्यके धर्ममाराध्य
वहति,
लुठति ॥
सेवन्ते,
इह ।
स्थाने,
नराः ॥
वा, श्रुतम् ।
निष्ठितार्था वा देवा उत्तरीये इति मे श्रुतं च मे एतद् एकेषां, अमनुष्येषु
तथा ॥
प्र०१५ यमकीय श्लोक ८-१६
८. जिसके पूर्वकृत कर्म नहीं होता वह महावीर्यवान् नहीं मरता" (और नहीं जन्मता) जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को पार कर जाती है वैसे ही वह (विज्ञाता या द्रष्टा ) लोक में त्रि होने वाली स्त्रियों ( काम-वासना) का" पार पा जाता है ।
९. जो स्त्रियों का सेवन नहीं करते (जो काम वासना से मुक्त होते हैं) वे जन मोक्ष पाने वालों की पहली पंक्ति में हैं ।" वे बन्धन से उन्मुक्त हो, जीने की इच्छा नहीं करते । ११
१०. वे जीवन की ओर पीठ कर कर्मों का अन्त करते हैं । वे कर्मों के सामने खड़े हो" मार्ग का अनुशासन करते हैं।"
११, संयम धन से सम्पन्न पुरुष" प्राणियों में उनकी योग्यता के अनुसार" अनुशासन" करते हैं। वे पूजा का आशय नहीं रखते।" वे अनाशय, संयत, दान्त, दृढ़ और मैथुन से विरत होते हैं।
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१२. जिसके लोत छिन्न हो चुके हैं जो निर्मल वित्त वाला है," वह प्रलोभन के स्थान में लिप्त न हो !" वह सदा निर्मल चित्त वाला दान्त अनुपम संधि
( ज्ञान आदि) को प्राप्त करता है।
१३, अनुपम संधि को जानने वाला" चक्षुष्मान् पुरुष" किसी के साथ मनसा, वाचा, कर्मणा विरोध न करे ।
१४. वह मनुष्यों का चक्षु है जो आकांक्षा का अन्त करता है । उस्तरा अंत (धार) से चलता है । चक्का अन्त (छोर) से चलता है ।"
१५. धीर पुरुष अंत का सेवन करते हैं, इसलिए वे धर्म के शिखर पर पहुंच जाते हैं"। वे इस मानव जीवन में धर्म की आराधना कर
१६. या तो मुक्त होते हैं" या अनुत्तर देवलोकों में देव होते है, यह मैंने सुना है" कुछ बचनकारों (बुद्ध) का यह मत भी मैंने सुना है कि अ-मनुष्यों (देवों) का भी निर्माण होता है, किन्तु ऐसा नहीं होता, मनुष्य ही निर्वाण को प्राप्त करता है । *"
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