Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
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अध्ययन १४ : टिप्पण ४०-४२
मार्ग में फलों से लदे वृक्ष तथा स्थान-स्थान पर जल के सरोवर हैं। इस मार्ग पर चलते हुए तुम्हें भूख-प्यास से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा ।"
४०. सही मार्ग बता रहे हैं (सम्म
सासयंति)
यहां दो पदों - सम्म + अणुसासयंति में संधि हुई है। चूर्णिकार ने सम्यक् का अर्थ ऋजु और अनुशासना का अर्थ - मार्गोपदेशना किया है ।"
श्लोक ११ :
वृत्तिकार ने 'वीर' शब्द से तीर्थंकर अथवा गणधर आदि का ग्रहण किया है । "
४१. महावीर ने (वीरे )
४२. ( एतो मं उवणे सम्म)
गन्तव्य स्थान प्राप्त कर लेने पर दिग्मूढ व्यक्ति अपने मार्ग-दर्शक की कुछ विशेष पूजा करता है, उसका सम्मान करता है । फिर चाहे पथदर्शक चाण्डाल, पुलिन्द, गन्द, गोपाल आदि ही क्यों न हो और स्वयं उससे विशिष्ट जाति या बलोपेत भी क्यों न हो । वह यह सोचता है - इस पथदर्शक ने मुझे दुर्ग आदि दुर्लध्य स्थानों तथा हिंस्र पशुओं के भय से बचाकर निर्विघ्न रूप से गन्तव्य तक पहुंचाया है । मुझे इसके प्रति विशेष कृतज्ञ होना चाहिए। इसने जो मेरी सहायता की है, उससे भी अधिक मैं इसे कुछ दूं। ऐसा सोचकर वह उस मार्ग दर्शक को वस्त्र, अन्न, पान तथा अन्य भोग-सामग्री स्वयं देता है ।
यह एक दृष्टान्त है । धर्म के क्षेत्र में भी साधक के लिए अपने मार्ग दर्शक के प्रति विशेष पूजा का व्यवहार करणीय है । अपने आचार्य को आहार आदि लाकर देना द्रव्य-पूजा है । उनकी भक्ति और गुणानुवाद करना भाव-पूजा है ।
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प्रस्तुत श्लोकगत अर्थ को भलीभांति समझकर मुनि उसको अपने पर घटित करे । वह यह सोचे --- गुरु ने अपने सद् उपदेशों के द्वारा मुझे मिथ्यात्व रूपी वन से तथा जन्म-मरण आदि अनेक उपद्रव बहुल अवस्थाओं से बचाया है । ये मेरे परम उपकारी हैं । मुझे इनके प्रति बहुत कृतज्ञ रहना चाहिए। अभ्युत्यान आदि विनय प्रदर्शित कर मुझे इनकी पूजा करनी चाहिए।
मुनि चाहे चक्रवर्ती ही क्यों न रहा हो और आचार्य यदि तुच्छ जाति के भी हों, तो भी मुनि का कर्तव्य है कि वह आचार्य के प्रति पूर्ण कृतज्ञ रहे, उनकी विशेष पूजा करे ।
दिग्मूढ मुनि को सत्पथ पर लाने वाले आचार्य उसके परमबन्धु होते हैं ।
'जो व्यक्ति जलते हुए घर में सोए हुए व्यक्ति को जगाता है, वह उसका परमबन्धु होता है ।' 'कोई अज्ञानी व्यक्ति विष-मिश्रित भोजन करता है और ज्ञानी उसे विष बता देता है, वह उसका परमबन्धु होता है ।" १. मि १० २३१ दिग्मूहस्थ उत्पथप्रतिपन्नस्य या अमूढः कश्चित् पुमान् अग्यो ग्रामो वा अविसं गच्छतो मार्ग कथयति यथा कथयामि तथा तथा मार्ग ईप्सितां भुवं गच्छति, अनुशासन्तो यदि उन्मार्गापायान् दर्शयित्वा ब्रवीति-अयं ते मोहितः क्षेम: अकुटिलरत्वादितः फलोवगाविवृक्षजलोपेतत्वाच्च । सम्मं उज्जुगं, न वा द्वेषेण, अनुशासना नाम मार्गोपदेशनंव ।
२. णि, पृ० २३१ : ३. वृत्ति, पत्र २५२ : वीरः - तीर्थकरोऽन्यो वा गणधरादिकः ।
४. (क) पूर्णि, पृ० २३१ ततः सेन
निस्तीर्णकान्तारेण सहा
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(ख) पत्र २२ ।
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने यहां दो पद्य उद्धृत किए
मूढेनेश्वरेण वा अदस्येति देशिकरण, यद्यपि चण्डाल-पुलिन्द-मन्त्र-गोपालादिवसस्यापि तेन या कायस्वा पूया सविसेसत्ता, अहमनेन पुर्याश्वापभयाविशेषेयो मोक्षित इत्यतोय कृतज्ञत्वात् प्रतिपूजां करोमि । विशेषयुक्ता नाम यावती मे तेन पूजा कृता अतो अस्याधिकं करोमि, तद्यथा वस्त्राऽन्नपान भोगप्रदानं च राजा दद्यात् ।
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नाना उत्तरन्तेन अभ्युत्थानादि सविशेष पूजा कर्तव्या पद्यप्यवर्ती आचार्यश्चन्द्रमः कुलाविजातः । द्रव्यपूजा आहारादि भावे भक्तिः वर्णवादश्च । वार्त्तास्वन्येऽपि दृष्टान्ताः । तद्यथा
'गेहे वि अग्गिजाला उलम्मि, जलमाण- उज्झमाणम्मि ।
जो
बोधेति सुबंधुं, सो
तस्स जणो परमबंधू ॥ या विससंत्तं मतं मदुमिह चोकामस्स । जो विसबोस साहति सो तस्स जो परमबंधू ॥
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