Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 621
________________ सूयगडो. ५८४ अध्ययन १४ : टिप्पण ८१ का अन्वेषण करने वाला जितने सत्य को जान जाता है, उसे विनम्रता से स्वीकार करता है। उसके लिए आग्रह की खाइयां नहीं खोदता । सत्य की स्वीकृति के दो रूप बन जाते हैं-विनम्र स्वीकृति और आग्रहपूर्ण स्वीकृति । विनम्र स्वीकृति का स्वर यह होता है-'मैं इतना जानता हूं। इससे आगे मुझसे अधिक ज्ञानी जानते हैं ।' अपनी ज्ञान की सीमा का अनुभव करना, यह शंकितवाद है। शंकितवाद का प्रयोग यह होता है-मेरी दृष्टि में यह तत्त्व ऐसा है, पर मेरे पास समन ज्ञान नहीं है जिसके आधार पर मैं कह सक-यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं है। इस प्रकार सत्य की विनम्र स्वीकृति शंकितवाद है। शंकित का तात्पर्य संदिग्ध नहीं किन्तु अनाग्रह है। ५१. विभज्यवाद (मजनीयवाद या स्यादवाद) का (विभज्जवायं) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए है-भजनीयवाद या अनेकान्तवाद । तत्त्वार्थ के प्रति अशंकित न होने पर भजनीयवाद का सहारा लेकर मुनि कहे-'मैं इस विषय में ऐसा मानता हूं। इस विषय की विशेष जानकारी करने के लिए अन्य विद्वानों को भी पूछना चाहिए।' विभज्यवाद का दूसरा अर्थ है—अनेकान्तवाद । जहां जैसा उपयुक्त हो वहां अपेक्षा का सहारा लेकर वैसा प्रतिपादन करे । अमुक नित्य है या अनित्य ? ऐसा प्रश्न करने पर अमुक अपेक्षा से यह नित्य है, अमुक अपेक्षा से यह अनित्य है- इस प्रकार उसको सिद्ध करे। वृत्तिकार ने विभज्यवाद के तीन अर्थ किए हैं१. पृथग्-पृथग् अर्थों का निर्णय करने वाला वाद । २. स्याद्वाद। ३. अर्थों का सम्यग् विभाजन करने वाला वाद, जैसे-द्रव्य की अपेक्षा से नित्यवाद, पर्याय की अपेक्षा से अनित्यवाद । सभी पदार्थों का अस्तित्व अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से है। पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं है। बौद्ध साहित्य में विभज्यवाद, विभज्यवाक् आदि का उल्लेख अनेक स्थानों पर प्राप्त होता है। विभज्य के दो अर्थ हैंविभज्य-विश्लेषण पूर्वक कहना (analysis)* विभज्य-संक्षेप का विस्तार करना बुद्ध ने स्वयं को 'विभज्यवाद' का निरूपक कहा है। इसका तात्पर्य इस प्रकार समझाया गया है । बुद्ध से पूछा गया 'गहट्ठो आराधको होतिञायं धम्म कुसल ?' 'न पब्बजितो आराधको होतिजायं धम्म कुसलं ?' क्या गृहस्थ आराधक होता है-न्याय, धर्म और कुशल को पाने में सफल होता है ? क्या प्रव्रजित आराधक नहीं होता-न्याय, धर्म और कुशल को पाने में सफल नहीं होता है ? १. चूणि, पृ०२३५: विभज्यवादो नाम भजनीयवादः । तत्र शंकिते भजनीयवाद एव बक्तव्यः-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छज्जसि । अथवा विभज्यवादो नाम अनेकांतवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नित्या नित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि । २ वृत्ति, पत्र २५६, २५७ : तथा विभज्यवादं पृथगर्थनिर्णयवाद व्यागृणीयात्, यदि वा विभज्यवाद:-- स्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसवादितया सर्वव्यापिन स्वानुभवसिद्धं वदेद, अथवा सम्यगर्यान् विभज्य-पृथक्कृत्वा तद्वादं वदेत्, तद्यथा-नित्यवाद द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालमावः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम्-'सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ? । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।' ३. Early Buddhist Theory of Knowledge, K.N. Jayatilleke, Page 280. ४. Early Buddhist Theory of Knowledge, Page 293: The term vi+vbhaj-is found in another important sense in the Pali Canon to denote a detailed classification, exposition or explanation of a brief statement or title. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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