Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 606
________________ सूयगंडा १ अध्ययन १४ : टिप्पण १९-२१ चूणिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार है जो मुनि स्थान का सम्यक् प्रतिलेखन और प्रमार्जन करता है, बिछौने पर सोते समय जागृत अवस्था में सोता है, आसन पर बैठते समय उन पीढ, फलक आदि का सम्यक प्रति लेखन करता है और आसनों को कब ग्रहण करना चाहिए, कब उनका उपभोग करना चाहिए-इसका विवेक रखता है, पांच प्रकार की निषद्याए'-पर्यकादि का उपभोग करता है तथा जो प्रत्येक प्रवृत्ति में संयत रहता है, वह सुसाधु युक्त (सुसाधु की क्रिया से युक्त) होता है।' वृत्तिकार के अनुसार इन दो चरणों की व्याख्या इस प्रकार है जो मुनि स्थान की दृष्टि से सदा गुरुकुलवास में रहता है तथा शयन, आसन, गमनागमन और तपश्चरण में पराक्रम करते समय उद्यतविहारी मुनियों के साथ रहता है वह सुसाधु युक्त होता है । वह मेरु पर्वत की भांति निष्प्रकम्प तथा शरीर से निःस्पृह होकर कायोत्सर्ग करता है । सोते समय वह शयनभूमी, बिछौना और शरीर का सम्यक् प्रतिलेखन करता है और गुरु की आज्ञा प्राप्त कर, गुरु द्वारा निर्दिष्ट समय में सोता है । सोते समय भी वह जागते हुए की भांति सोता है। आसन पर बैठते समय भी वह अपने शरीर को संकुचित और संयत कर, स्वाध्याय तथा ध्यान की मुद्रा में बैठता है।' १६. आत्मप्रज्ञ (आयपण्णे) चणिकार और वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'आगतप्रज्ञः' दिया है। इसका अर्थ है-प्रज्ञावान्, कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से युक्त ।' २०. बहुत अच्छे ढंग से (पुढो) चूर्णिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ फलित होते हैं१. विस्तार से। २. प्रत्येक को। ३. परस्पर । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-पृथक्-पृथक् रूप से अर्थात् भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है।' श्लोक ६: २१. मुनि प्रशंसा या कठोर शब्दों को सुनकर (सहाणि .. ......."भेरवाणि ।) शब्द दो प्रकार के होते हैं -मनोज्ञ और अमनोज्ञ, कर्णप्रिय और कर्णकटु । स्तुति, बन्दना, आशीर्वचन, निमंत्रण आदि के शब्द मनोज्ञ होते हैं । इसी प्रकार वेणु, वीणा आदि वाद्यों के शब्द भी कर्णप्रिय होते हैं । जो शब्द भय उत्पन्न करते हैं वे भैरव कहलाते हैं । वे अप्रिय होते हैं । इसी प्रकार खर, परुष और निष्ठुर शब्द भी अप्रिय होते हैं। १. ठाणं ५/५०। २. चूर्णि, पृ० २२६, २३० । ३. वृत्ति, पत्र २५०। ४. (क) चूणि, पृ० २३० : आगता प्रज्ञा यस्य स भवति आगतप्रज्ञः । (ख) वृत्ति, पत्र २५० : आगता-उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञः-संजात-कर्तव्याकर्तव्यविवेकः स्वतो भवति । ५. चूणि, पृ० २३० : पुढो बिस्तरतः कथयति, पुढो-पतिचोदिज्ज स्वयम्,..."अथवा पुढो त्ति परस्परं चोदयति । ६. वृत्ति, पत्न २५० : ....''पृथक् पृथक् । ७. (क) चूणि, पृ० २२६ : वन्दन-स्तुत्याशीर्वाद-निमन्त्रणादीन् तयोपसेवनादीनि । ... "भयं कुर्वन्तीति भैरवाणि, तद्यथा-खर-फरस णिठ्ठर-भैरवादीनि । (ख) वृत्ति, पत्र २५० : शम्दान् वेणुवीगाविकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् " "मैरवान् -भयावहान् कर्णकटून् । For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org

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