Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang  Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 602
________________ सूयगडो १ कार्य रूप में परिणत करे । ' 'विनय' शब्द के विविध अर्थों के लिए देखें १. दसवे आलियं - ७।१ टिप्पण, पृष्ठ ३४६ । ११ टिप्पण, पृष्ठ ४२५, ४३० । ५६५ ४. ( जे छेए ... ) संयम का पालन करता हुआ निपुण मुनि संयम या आचार्य के उपदेश में किसी भी प्रकार के प्रमाद का प्रमाद का अर्थ है - संयम में अनुद्यम । विप्रमाद का अर्थ है - जैसा कहना वैसा करना। वही मुनि निपुण होता है है वैसा ही करता है । ५. ढंक आदि ( ढंकावि ) जैसे रोगी चतुर वैद्य के निर्देश का पालन करता हुआ रोगमुक्त होकर शांति और श्लाघा को प्राप्त करता है, वैसे ही साधु भी सावद्य ग्रन्थों को छोड़कर पापकर्म को दूर करने वाली औषधि रूप प्रशस्तभावग्रन्थ या आचार्य वचनों को स्वीकार कर कर्मरूपी रोग को शान्त करता है। इससे दूसरे साधुओं में उसकी प्रशंसा भी होती है और अशेष कर्मक्षय भी होता है।' देखें - १।६२ का १२० वां टिप्पण | अध्ययन १४ टिप्पण ४-६ श्लोक २ : Jain Education International सेवन न करे । जो जैसा कहता ६. (डंकादि हरेना) उस पंखहीन शिशु को ढंक आदि उठाकर ले जाते हैं। चूर्णिकार ने आदि शब्द से निम्न सूचनाएं दी हैं-चींटियां उसे खा डालती हैं, दूसरे पक्षी उसे मार डालते हैं, बच्चे उसे डराते हैं अथवा कौआ उसे उठाकर ले जाता है ।" इस श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि जो मुनि एकलविहार प्रतिमा की साधना के लिए योग्य नहीं होता, गच्छ में कोई भी मुनि उसे एकलविहार प्रतिमा स्वीकार नहीं करवाता क्योंकि वह अभी तक उतने शास्त्रों को नहीं पढ़ पाया है जितने शास्त्र उसको पढ़ने चाहिए थे, तब वह आचार्य के उपदेश के बिना भी स्वच्छन्दता से गच्छ से बहिर्गमन कर एकलविहारी बन जाता है, तब वह अनेक दोषों का सेवन करने वाला होता है। वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे पंखहीन पक्षी का बच्चा घोंसले से निकल कर उड़ने की चेष्टा करने पर दूसरों द्वारा मार दिया जाता है।" १. वृत्ति, पत्र २४८ : विनीयते—अपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठु शिक्षेद् - विदध्यात् ग्रहणसेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालये । दिति २. (क) पूर्णि, पृ० २२० देशविप्रमादं प्रमादो नाम अनुद्यमः (विप्रमादः यथोक्तकरणम वचातुरः सम्यग्वेोक्यातकारी शांति लभते एवं साधुरपि सावद्यग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेषजस्थानीयेन प्रशस्त भावग्रन्थेन कर्मामयशांति लभते । (ख) वृत्ति, पत्र २४८ : 'छेको' – निपुणः स संयमानुष्ठाने सवाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमादं न कुर्याद्, यथा हि आतुरः सम्यग्वैद्योपदेशं कुर्वन्ालते रोगोपशमं च एवं साधुरपि साम्यपरिहारी पापकर्मजस्थानभूतान्याचार्यवचनानि विसायः साधुकारमशेषकर्मशयं चायानोतीति । ३. चूर्ण, पृ० २२८ : ढङ्क पंखी, ढङ्क आदिर्येषां ते भवति ढंकादिणो अन्यतराः, अव्यक्तगम इति अपर्याप्तः, हरेज्ज वा पिवीलिकाओ व णं खाएज्जा, मारेज्ज वा णं चेडरूवाणि धाडेज्ज वा अपि कानेनापि हियते । ४. (क) पूर्णि, पृ० २२० जो पुन एलविहारपडिमाए अपनतो, पम्म के रिले अविदिणि (?) जिगच्छेति महोदधी हा मासी तीर्थंकराविभित्तिः तत्व दादोसा भवति । , (ख) वृत्ति पत्र २४६ यः पुनराचार्योपदेशमन्तरेण स्वन्यतयागादित्य एकाकिविहारितां प्रतिपद्यते स च बहुरोपचा भवति ....... व्यापादयेयुरिति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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