Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १ टिप्पण: ४६-४६
सकता है । ये दोनों अविवेकता (सम्भूयकारिता) और प्रसवर्मिता गुणों के ही धर्म हैं । अत: जहां गुण नहीं हैं उस पुरुष तत्त्व में इन दोनों धर्मों का भी अभाव ही रहेगा, इसलिए वह कर्ता नहीं, अकर्ता ही सिद्ध होता है।"
कर्तृत्व सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों में ही निहित है, फिर भी उनकी सन्निधि से वह कर्ता की भांति प्रतीत होता
इस अभिमत के संदर्भ में तेहरवें श्लोक के प्रथम दो चरणों का अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है-आत्मा सब कुछ करने वाला और कराने वाला है (ऐसा प्रतीत होता है), (किन्तु वास्तव में) वह कर्ता नहीं है।
सांख्य दर्शन में कर्तृत्व का विचार अधिष्ठातृत्व और उपादान-इन दो दृष्टियों से किया गया है। 'मिट्टी से घड़ा बनता है'-इसमें मिट्टी उपादान है । 'मिट्टी घड़ा बन जाती है'- इस वाक्य में उपादान कर्ता रूप में प्रस्तुत है। प्रकृति कर्ता है-इसका तात्पर्य यह है कि प्रकृति बुद्धि आदि तत्त्वों का उपादान कारण है । पुरुष उनका उपादान कारण नहीं है, इसलिए वह अकर्ता है। पुरुष के सान्निध्य के बिना प्रकृति में परिणाम नहीं हो सकता, इसलिए वह अपनी सन्निधि के कारण उस परिणाम का साक्षी है, उसका अधिष्ठाता है । इस अधिष्ठातृत्व की दृष्टि से वह कर्ता भी है । तात्पर्य की भाषा में कहा जा सकता है कि पुरुष प्रकृति के परिणमन का उपादान के रूप में कर्ता नहीं है, वह साक्षी रूप में कर्ता है। प्रकृति में उपादानमूलक कर्तुत्व है, पूरुष में अधिष्ठातृमूलक । यह सापेक्ष कर्तृत्व और अकर्तृत्व ही प्रस्तुत श्लोक में विवक्षित है। ४६. आत्मा को छटा तत्त्व मानने वाले (आयछट्रा)
आत्मा को छट्ठा तत्त्व मानने वाले अर्थात् पांच महाभूतों से यह शरीर निष्पन्न हुआ है और आत्मा छट्ठा तत्त्व है-ऐसा मानने वाले दार्शनिक । ४७. आत्मा और लोक शाश्वत हैं (आया लोगे य सासए)
__'लोगे' का अर्थ है-पृथिवी आदि रूप वाला लोक । चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-१. प्रधान (प्रकृति) २ सम्यक्त्व । कुछ दार्शनिक आत्मा और पांच भूतों को अनित्य मानते थे किन्तु आत्मषष्ठवादी इन्हें शाश्वत मानते थे । आत्मा सर्वव्यापी तथा अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह शाश्वत है तथा पृथिवी आदि भूत अपने रूप से कभी प्रच्युत नहीं होते अतः वे भी शाश्वत हैं । ४८. ते
___ चूणिकार ने 'ते' शब्द से आत्मा और लोक का अर्थ फलित किया है।' वृत्तिकार ने 'ते' से पृथ्वी आदि पांच भूत और आत्मा का ग्रहण किया है। वास्तव में चूर्णिकार का अभिमत संगत है।
श्लोक १६ ४६. उन दोनों (आत्मा और लोक) (दुहओ)
चूणिकार को 'दुहओं' का यह अर्थ सम्मत है-आत्मा तथा चाक्षुष-अचाक्षुष प्रकृति अथवा ऐहिक या आमुष्मिक लोक ।' १. सांख्यकारिका, पृष्ठ ८९,६० (व्रजमोहन चतुर्वेदी कृत अनुवाद) २. सांख्यकारिका, २० : गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तेव भवत्युदासीनः । ३. चूणि, पृष्ठ २८ : पंचमहन्भूतियं सरीरं, सरीरी छट्ठो, स च आत्मा। ४. चूणि, पृष्ठ २८ । लोको नाम प्रधानः सम्यक्त्वं चेति । ५. वृत्ति, पत्र २४ : एतानि चात्मषष्ठानि भूतानि यथाऽन्येषां वादिनामनित्यानि तथा मामीषामिति दर्शयति-आत्मा लोकश्च
पृथिव्यादिरूपः 'शाश्वतः' अविनाशी, तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाच्चाकाशस्येव शाश्वतत्वं, पृथिव्यादीनां च तद्रूपाप्रच्युतेरविनश्वरत्वमिति । ६ चूणि, पृष्ठ २८। ७. वृत्ति, पत्र २४ : ते आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पवार्थाः। ८. चूणि, पृष्ठ २८ : दुहतो णाम उभयतो, आत्मा प्रधानं चाक्षुषमचाक्षुषं वा ऐहिकाऽऽमुष्मिको वा लोकः ।
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