Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्र०२: वैतालीय : श्लोक ४८-५३
सूयगडो १ ४६.जे एय चरंति आहियं
णाएण महया महेसिणा। ते उद्विय ते समुट्ठिया अण्णोणं सारेंति धम्मओ ।२६।
ये एनं चरन्ति आहृतं, ज्ञातेन महता महर्षिणा । ते उत्थिताः ते समुत्थिताः, अन्योन्यं सारयन्ति धर्मतः ।।
४८. जो महान् महर्षि ज्ञातपुत्र द्वारा कथित
धर्म का आचरण करते हैं वे उत्थित हैं, समुत्थित हैं । वे एक दूसरे को धर्म में (धार्मिक प्रेरणा से) प्रेरित करते
४६. मा पेह पुरा पणामए
अभिकंखे उहि धुणित्तए। जे दूवण ण ते हि णो णया ते जाणंति समाहिमाहियं ।२७।
मा प्रेक्षस्व पुरा प्रणामकान्, ४६. पूर्वकाल में भुक्त भोगों की ओर न अभिकांक्षेद् उपधिं धूनयितुम् ।। देखें । उपधि (मान या कर्म) को दूर ये दुरुपनता न ते हि नो नता:,
करने की अभिलाषा करें। जो विषयों
के प्रति नत होते हैं वे स्वाख्यात ते जानन्ति समाधिमाहृतम् ।।
समाधि को नहीं जान पाते और जो उनके प्रति नत नहीं होते वे ही स्वाख्यात समाधि को जान पाते हैं।
५० णो काहिए होज्ज संजए
पासणिए ण य संपसारए । णच्चा धम्मं अणुत्तरं कयकिरिए य ण यावि मामए ।२८।
नो काथिको भवेत् संयतः, प्राश्निक: न च संप्रसारकः । ज्ञात्वा धर्म अनुत्तरं, कृतक्रियः च न चापि मामकः ।।
५०. संयमी भोजन आदि की कया न करे,
साक्षी (मध्यस्थ या पंच) न बने, लाभअलाभ, मुहूर्त आदि न बताए, अनुत्तर धर्म को जानकर गृहस्थ के द्वारा किए गए आरम्भ की प्रशंसा न करे
और 'यह मेरा है, मैं इसका हूं'-इस प्रकार ममत्व न करे।
५१. छण्णं च पसंस णो करे
ण य उक्कोस पगास माहणे । तेसि सुविवेगमाहिए पणया जेहि सुझोसियं धुयं ।२६।
छन्न च प्रशसा ना कुयात्, ५१. मुनि माया और लोभ का आचरण न न च उत्कर्ष प्रकाशं ब्राह्मणः । करे। मान और क्रोध न करे । तेषां सुविवेक आहृतः,
जिन्होंने धुत का सम्यक् अभ्यास प्रणताः यः सुजुष्टं धुतम् ।।
किया है और जो (धर्म के प्रति) प्रणत हैं उन्हें सम्यक् विवेक उपलब्ध हो गया है।
५२. अणिहे सहिए सुसंवुडे
धम्मट्ठी उवहाणवीरिए। विहरेज्ज समाहितिदिए आतहितं दुक्खेण लब्भते।३०।
अस्निहः सस्वहितः सुसंवतः, धर्मार्थी उपधानवीर्यः । विहरेत् समाहितेन्द्रियः, आत्महितं दुःखेन लभ्यते ।।
५२. मुनि स्नेह रहित", आत्महित में रत",
सुसंवृत, धर्मार्थी, तप में पराक्रमी और शांत इन्द्रिय वाला होकर विहार करे । आत्महित की साधना बहुत दुर्लभ
५३. ण हि णूण पुरा अणुस्सुयं
अदुवा तं तह णो अणुट्टियं । मुणिणा
सामाइयाहियं जगसव्वदंसिणा।३१॥
न हि नूनं पुरा अनुश्रुतं, अथवा तत् तथा नो अनुष्ठितम् । मुनिना सामायिकं आहृतं, ज्ञातकेन जगत्सर्वदशिना॥
५३. विश्व में सर्वदर्शी ज्ञातपुत्र मुनि ने जो
सामायिक का आख्यान किया है वह निश्चित ही पहले अनुश्रुत-परंपराप्राप्त नहीं है अथवा वह जैसे होना चाहिए वैसे बनुष्ठित नहीं है।
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