Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूर्यगडो १
प्रध्ययन ६ : टिप्पण ८९-९१
८६. अनन्त चक्ष (अणंतचक्खू)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ-अनन्त दर्शन वाला' और वृत्तिकार ने केवलज्ञानी' किया है। जो अनन्तदर्शनी होता है वह अनन्तज्ञानी भी होता है और जो अनन्तज्ञानी होता है वह अनन्तदर्शनी भी होता है। दोनों युगपत् होते हैं ।
देखें-श्लोक ६ का टिप्पण।
श्लोक २६: ६०. अध्यात्म दोषों का (अज्झत्तदोसा)
दोष दो प्रकार के होते हैं१. बाह्य दोष । २. अध्यात्म दोष-~आन्तरिक दोष । कषाय-चतुष्क आन्तरिक दोष हैं।
ये चार कषाय-क्रोध, मान माया और लोभ संसार की स्थिति के मूल कारण हैं। जब कारण का विनाश होता है तब कार्य का भी विनाश हो जाता है । 'निदानोच्छेदेन निदानिन उच्छेदो भवति ।'
जब चारों कषाय नष्ट हो जाते हैं तब व्यक्ति निर्वाण के निकट पहुंच जाता है।
अध्यात्म का अर्थ है-आत्मा के भीतर होने वाला । गुण और दोष-दोनों अध्यात्म हो सकते हैं । सांख्यदर्शन के अनुसार ताप आध्यात्मिक भी होता है।
श्लोक २७:
६१. श्लोक २७ :
प्रस्तुत श्लोक में चार वादों का उल्लेख है१. क्रियावाद-आत्मवाद । क्रिया से मोक्ष-प्राप्ति मानने वाला दर्शन । २. अक्रियावाद-ज्ञानवाद । वस्तु के यथार्थ ज्ञान से मोक्ष मानने वाला दर्शन । ३. वनयिकवाद-विनय से ही मोक्ष मानने वाला दर्शन । ४. अज्ञानवाद-अज्ञान से इहलोक और परलोक की सिद्धि मानने वाला दर्शन ।
इन चारों वादों की विस्तृत व्याख्या के लिए देखें-(१) बारहवां अध्ययन तथा उसके टिप्पण। (२) उत्तरज्झयणाणि १८।२३ का टिप्पण।
१. चूर्णि, पृ० १४६ : अणंतचक्खुरिति अनन्तदर्शनवान् । २.वृत्ति, पत्र १५१ : 'अनन्तम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वात् वाऽनन्तं चक्षरिव चक्षा-केवलज्ञानं यस्य स तथेति । ३. चणि, पृ०१४६ : आध्यात्मिका ह्य ते दोषाः, बाह्या गृहावयः। ४. वृत्ति, पत्र १५१ : निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवती ति न्यायात् संसारस्थितेश्च क्रोधावयः कषायाः कारणमत एतान
अध्यात्मदोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् । ५. सांख्यकारिका १११, अनुराधाव्याख्या, पृ० २ : आत्मनि इति अध्यात्म, तदधिकृत्य जायमानमाध्यात्मिकम् । वही पृष्ठ ३, नं १ के फुटनोट में उद्धृत, विष्णुपुराण ६।५।६:
मानसोऽपि द्विजश्रेष्ठ !, तापो भवति नकधा । इत्येवमादिभिर्भदेस्तापो, ह्याध्यात्मिको मतः ।।
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